SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६८ ह रि वं किया। उसी तीर्थंकर कर्मबन्ध के कारण अत्यन्त विशिष्ट एवं अद्भुत पुण्य से देव समूह को प्रभावित किया है। इसी कारण वे आपके चरणों की सेवा में उपस्थित हैं । देव-दुन्दुभि के शब्द आपका यश प्रगट कर रहे हैं । हे नाथ ! आपके यश से शुक्लीकृत जन्म कल्याणक से समस्त भारत पवित्र हुआ है। हे प्रभो ! आपने शरीर की कान्ति से सूर्य-चन्द्र को भी जीत लिया है। श क हे भक्त वत्सल ! अब आप जन्म-जरा-मरण रूपी रोग से भयंकर संसाररूपी महादुःख के अपार सागर | को पार कर मोक्षस्वरूप समस्त लोक के उस शिखर को प्राप्त होंगे, जहाँ पर उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त सिद्ध भगवान विराजमान हैं। जहाँ निरन्तर उदय में रहनेवाला सर्वोत्तम स्वाधीन सुख सुलभ हैं। था हे स्वामिन् आप उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य स्वभाववाले पदार्थों के निरूपण करने में पूर्ण समर्थ होंगे। आपने दसों दिशाओं को सुगन्धित कर दिया है । आपका शरीर उत्कृष्ट संहनन एवं संस्थान से सम्पन्न है । आपके शरीर का रुधिर दूध के समान श्वेत हैं, मल-मूत्र एवं पसीने से रहित हैं। आपने कामदेव को जीत लिया है। हे ईश ! आपका ऐश्वर्य अपरिमित हैं । बाल्यकाल में भी आप लोकोत्तर पराक्रम के धारक हैं" इत्यादि अनेक प्रकार से अन्तर्बाह्य व्यक्तित्व का गुणगान करते हुए देव और इन्द्रों ने प्रणाम करते हुए अन्त में कहा - हे प्रभो ! हमें बोधि की प्राप्ति हो ! हम भी रत्नत्रय धर्म प्रगट कर अनन्तकाल तक एकमात्र अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोग करें बस, यही हमारी कामना है। - हास्य और अद्भुत रस से परिपूर्ण वाचिक, आंगिक, अभिनय करने में प्रवृत्त अप्सरायें सुन्दर नृत्य कर | रहीं थीं। तभी सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर धीर-वीर बाल तीर्थंकर को विराजमान कर सुमेरु पर्वत से शौर्यपुर की ओर चला। मार्ग में चलते हुए देवों के समूह भगवान का अभिनन्दन कर रहे थे। ऐसे नेमि जिनेन्द्र शीघ्र ही उस शौर्यपुर नगर में जा पहुँचे, जहाँ के बड़े-बड़े मार्ग उनके स्वागत में दिव्य और सुगंधित जल की वृष्टि | से सींचे जाकर फूलों की पड़ती हुई वर्षा से ढंक से गये थे। बालक होने पर भी जिनका व्यक्तित्व बालकों जैसा नहीं था, जो वयस्कों के समान धीर-गंभीर एवं ने मि ना थ का ज न्म क ल्या ण क १६
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy