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________________ गुणस्थान विवेचन १४. इस विश्व में अनेक जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त कर रहे हैं; पंचम गुणस्थान की प्राप्ति कर रहे हैं; छठवें सातवें गुणस्थान में झूल रहे हैं तथा परिषह व उपसर्गरूप विपरीत संयोगों में आत्मानंद का अनुभव कर रहे हैं। और सिद्ध भगवान भी हो रहे हैं - इन बातों से भी जीव ही पुरुषार्थी अर्थात् बलवान है, यह विषय हमें स्पष्ट हो जाता है। १५. जड़ द्रव्यकर्म का उदय और जीव के विकारी परिणाम एक साथ व एक ही समय में होते हैं; ऐसा कथन आचार्यों ने करणानुयोग में किया है; इसलिए कर्म जीव के विकारी परिणामों का कर्त्ता नहीं है; अतः कर्म बलवान नहीं है; यह विषय अत्यंत स्पष्ट रीति से सिद्ध हो जाता है। २६४ १६. कर्म को बलवान मानोगे तो जीव पराधीन और कर्मों का गुलाम होने से कोई मुनि, व्रती, श्रावक व सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो पायेंगे; क्योंकि अपनी-अपनी भूमिका के योग्य विशिष्ट कर्मों के उपशमादि हुए बिना कोई जीव मुनि आदि हो ही नहीं सकते। नष्ट तो कमजोर होते हैं, बलवान नहीं। आज तक अनंत जीवों ने स्वयं पुरुषार्थपूर्वक मुक्ति की प्राप्ति की है, उसके फलस्वरूप कर्मों का अकर्मपना स्वयं हो गया है। १७. पूर्व जीवन में जीव ने विपरीत पुरुषार्थ से तीव्र मोहादि कर्मों का बंध किया था और उस कर्म के उदय काल में पुरुषार्थहीनता से जीव धर्म प्रगट करने में समर्थ नहीं हो पाता। अतः शास्त्र में “कर्म बलवान् है” ऐसा कथन भी व्यवहार नय से आया है, वास्तव में कर्म बलवान नहीं ऐसा समझना चाहिए। जैसे राम के पराक्रम, शौर्य, धैर्य आदि की प्रसिद्धि को स्पष्ट करने के लिये ही दुष्ट रावण के भी शौर्य का वर्णन जैन शास्त्रों में किया है। वैसे ही जीव के बलवान को विशेषरूप से सिद्ध करने के लिये व्यवहार नय से कर्म को बलवान कहा गया है, इसका अर्थ जीव ही बलवान है। कर्मरूप निमित्त का तो मात्र ज्ञान कराया गया है १८. यदि कर्म को बलवान मानेंगे तो एक भी जीव सिद्ध भगवान नहीं बन सकेगा; क्योंकि जीव के पुरुषार्थपूर्वक कर्म का अभाव हुए बिना कोई जीव सिद्ध नहीं हो सकता। अनेक जीव कर्मों के अभावपूर्वक सिद्ध भगवान जीव ही बलवान है, कर्म नहीं २६५ हो गये हैं। इससे स्वतः सिद्ध हो गया कि जीव ही बलवान है। मानो सिद्ध भगवान सिद्धालय में बैठकर हमें देखकर पुकार - पुकारकर समझा रहे हैं कि कर्मरहित ऐसे हम अनंत सिद्धों को जानकर भी जीव ही बलवान है, कर्म नहीं यह छोटी-सी बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रही है ? १९. श्री चंद्रप्रभ भगवान की पूजन के छंद में कहा हैकर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई । अग्नि है घनघात, लोह की संगति पाई ॥ देव शास्त्र - गुरु पूजन का निम्न छंद भी हमें स्पष्ट समझा रहा है - जड़कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी । मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी ।। प्रश्न : शास्त्रों में सर्वत्र सुखी अथवा मुक्त होने के लिए जीवों को ही क्यों समझाया है ? कर्मों को क्यों नहीं समझाया ? उत्तर : १. जीव अनादि अनंत है, अतः जीव बड़ा है। कर्म सादिसान्त है; इसलिए उम्र की अपेक्षा से भी कर्म ही छोटा है। कर्म अधिक से अधिक सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिवाला हो सकता है। जैसे - लौकिक जीवन में बड़े और छोटे भाइयों में अथवा विद्यार्थियों में झगड़ा हो जाता है तो बड़े को समझाते हैं। संसार में जीव बड़ा है। अतः जीव को ही समझाया है। २. समझदार अर्थात् ज्ञानवान को समझाया जाता है; अतः शास्त्र में कथन आता है - कर्म को नष्ट करो ऐसा जीव को ही समझाया गया है; क्योंकि जीव ज्ञानवान है। कर्म पुद्गल की पर्याय है, पुद्गल जड़ अचेतन है । अतः उसे "तुम जीव को छोड़ो, उसे मुक्त होने दो, उसे क्यों हैरान कर रहे हो ?" ऐसा नहीं समझाया है। २०. छठवें गुणस्थान में भावलिंगी मुनिराज को असातावेदनीय, अरति, शोक, भय आदि पापकर्मों का उदय है तथा प्रतिकूल निमित्त भी हैं; परन्तु ये कर्म मुनिराज को दुःखी या खेदखिन्न नहीं करते; क्योंकि मुनिराज ज्ञाता - दृष्टा रहते हैं तो कर्म बलवान कैसे ? अतः अपनी मान्यता शास्त्रानुकूल बनाने में ही हमारा हित है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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