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________________ २६३ परिशिष्ट -१ जीव ही बलवान है, कर्म नहीं १. जीव ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर संसारयुक्त अथवा निःसंसार अवस्था में आदि-मध्य-अंत में व्याप्त होकर संसारयुक्त अथवा संसाररहित ऐसा अपने को करता हुआ प्रतिभासित होता है। - समयसार गाथा ८३ की टीका २. वस्तु की शक्ति पर की अपेक्षा नहीं रखती। इसलिए जीव परिणमन स्वभाववाला स्वयं है। - समयसार गाथा १२१-१२५ की टीका ३. तत्त्वदृष्टि से देखा जाय, तो राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता; क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है। - समयसार कलश २१९ ४. इस आत्मा में जो राग-द्वेषरूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है। वहाँ तो स्वयं जीव ही अपराधी है। -समयसार कलश २२० ५. जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते, वे - जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अंध है; ऐसे मोहनदी को पार नहीं कर सकते। - समयसार कलश २२७ ६. आचार्य श्री जयसेन पुण्णफला अरहंता गाथा की टीका करते हुए लिखते हैं - द्रव्य मोह का उदय होने पर भी यदि जीव शुद्धात्म भावना के बल से भाव मोहरूप परिणमन नहीं करता तो बंध नहीं होता। यदि पुनः कर्मोदय मात्र से बंध होता हो तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सर्वदा बंध ही होगा, कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा। - प्रवचनसार गाथा ४५ ७. निगोद पर्याय में भावकलंक की प्रचुरता कही गयी है, कर्मों का बलवानपना तो वहाँ भी नहीं कहा है। - गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा-१६७ ८. प्रत्येक द्रव्य प्रति समय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अतः कोई जीव ही बलवान है, कर्म नहीं न कोई नई अवस्था होती ही है। उस अवस्था का कर्ता द्रव्य की उत्पादरूप भाव शक्ति ही है, कर्म या अन्य द्रव्य नहीं। ९. जीवादि छहों द्रव्यों में द्रव्यत्व नाम का एक सामान्यगुण है। इस द्रव्यत्व गुण से ही प्रत्येक द्रव्य की अवस्थायें निरंतर बदलती रहती हैं। अतः जीव में कुछ विकाररूप व कुछ अविकाररूप अवस्थायें होती हैं, उनका कर्ता जीव का द्रव्यत्वगुण ही है, कर्म नहीं। १०. यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्यसामग्री को मिलावे, तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए, सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ : २५ ११. अब, जो रागादिकभावों का निमित्त कर्म ही को मानकर अपने को रागादिक का अकर्ता मानते हैं, वे कर्ता तो आप हैं; परन्तु आपको निरुद्यमी होकर प्रमादी रहना है; इसलिए कर्म ही का दोष ठहराते हैं, सो यह दुःखदायक भ्रम है। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ : १९५ १२. तत्त्वनिर्णय करने में किसी कर्म का दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू स्वयं महंत रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव नहीं है। तुझे विषयकषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिये बनाये ? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने; तथापि पुरुषार्थ से उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा; इसलिये जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने, सो न करे यह असंभव है। _ - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ : ३११ १३. करणानुयोग के शास्त्रों में अनंत सर्वज्ञ भगवंतों के ज्ञानानुसार आचार्यों ने यह सार्वकालिक तथा सार्वभौमिक नियम बताया है कि "प्रत्येक छह माह और आठ समय में छह सौ आठ जीव सिद्ध दशा को प्राप्त करते रहते हैं।" वे भी हमें जीव के ही स्वाधीन पुरुषार्थ को दर्शा रहे हैं।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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