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________________ गुणस्थानों में विशेष २६७ परिशिष्ट -२ गुणस्थानों में विशेष १. जीवों की संख्या - १. प्रथम गुणस्थान में जीवों की संख्या अनंतानंत है, यह तिर्यंच गति में स्थावर जीवों की अपेक्षा से है। २. द्वितीय गुणस्थान में जीवों की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ३. तृतीय गुणस्थान में जीवों की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ४. चतुर्थगुणस्थान में जीवों की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ५. पंचम गुणस्थान में जीवों की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, यह संख्या संज्ञी तिर्यंच की अपेक्षा कही गयी है। ६. प्रथम गुणस्थान में मनुष्यों की अपेक्षा संख्या जगतश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, यह संख्या अपर्याप्त मनुष्यों की अपेक्षा से है। ७. द्वितीय गुणस्थान में मनुष्यों की अपेक्षा संख्या बावन करोड़ है। ८. तृतीय गुणस्थान में मनुष्यों की अपेक्षा से संख्या एक सौ चार करोड़ है। ९. चतुर्थ गुणस्थान में मनुष्यों की अपेक्षा से संख्या सात सौ करोड़ है। १०. पंचम गुणस्थान में मनुष्यों की अपेक्षा से संख्या तेरह करोड़ है। ११. छठवें गुणस्थान में जीवों की संख्या पांच करोड़, तेरानवे लाख, अट्ठानवें हजार, दो सौ छह (५,९३,९८,२०६) है। १२. सातवें गुणस्थान में जीवों की संख्या दो करोड़, छियानवे लाख, निन्यानवे हजार, एक सौ तीन (२,९६,९९,१०३) है। १३. उपशमश्रेणी के आठवें, नौवें, दसवें, ग्यारहवें गुणस्थानों में क्रमश: (२९९,२९९,२९९, २९९) जीव हैं। कुल मिलाकर उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानों में जीवों की संख्या ११९६ है। १४. क्षपकश्रेणी के आठवें, नौवें, दसवें, बारहवें गुणस्थानों में जीवों की संख्या ५९८, ५९८, ५९८, ५९८ प्रमाण है। क्षपकश्रेणी के चारों गुणस्थानों में जीवों की संख्या २३९२ है। १५. तेरहवें गुणस्थान में जीवों की संख्या आठ लाख, अट्ठानवें हजार, पाँच सौ दो (८,९८,५०२) है। १६. चौदहवें गुणस्थान में जीवों की संख्या ५९८ है। १७. छठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक जीवों की संख्या का जोड़ है - ५,९३,९८,२०६ + २,९६,९९,१०३ + १,१९६ + २,३९२ + ८,९८,५०२ + ५९८ = ८,९९,९९,९९७. ये तीन कम नौ करोड़ मुनिराज भावलिंगी ही होते हैं। १८. द्रव्यलिंगी मुनिराज पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें गुणस्थान में भी होते हैं। २. गुणस्थानों में बंध संबंधी सामान्य नियम - १. मिथ्यात्व की प्रधानता से मिथ्यात्व गुणस्थान में १६ प्रकृतियों का बंध होता है। २. अनन्तानुबंधी कषाय के उदय जनित अविरति से २५ प्रकृतियों का बंध होता है। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय की अपेक्षा मिश्र गुणस्थान में बंध की व्युच्छित्ति का अभाव होने से किसी नयी प्रकृति का बंध नहीं होता और किसी भी आयुकर्म का बंध भी नहीं होता। ३. अप्रत्याख्यानावरण कषायोदयजनित अविरति से १० प्रकृतियों का बंध होता है। ४. प्रत्याख्यानावरण कषाय उदय जनित विरताविरत से ४ प्रकृतियों का बंध होता है। ५. संज्वलन के तीव्र उदय जनित प्रमाद से ६ प्रकृतियों का बंध होता है। ६. संज्वलन और नोकषाय के मंद उदय से ५९ प्रकृतियों का बंध होता है। ७. योग से एक साता वेदनीय का बंध होता है। (मोह का सर्वथा उपशम होनेपर या सर्वथा क्षय होने पर)। ८. तीर्थंकर प्रकृति का बंध सम्यग्दृष्टि के चतुर्थ गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठे भाग पर्यंत ही होता है। ९. आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का बंध सातवें से आठवें गुणस्थान के छठे भाग पर्यंत ही होता है। १०. तीसरे गुणस्थान में किसी भी आयु का बंध नहीं होता है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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