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________________ चैतन्य चमत्कार क्रम के समक्ष देखना नहीं।" प्रश्न : “क्रमबद्ध में करने के लिए क्या आया ?" उत्तर : "करना है कहाँ ? करने में तो कर्तृत्वबुद्धि आती है। करने की बुद्धि छूट जाए - यह क्रमबद्ध है। क्रमबद्ध में कर्तृत्वबुद्धि छूट जाती है। पर में तो कुछ कर सकता नहीं, अपने में भी जो होने वाला है, वही होता है अर्थात् अपने में भी जो होनेवाला है, वही होता है, उसका क्या करना ? राग में भी कर्तृत्वबुद्धि छूट गयी, भेद और पर्याय से भी दृष्टि हट गयी, तब क्रमबद्ध की प्रतीति हुई। क्रमबद्ध की प्रतीति में तो ज्ञाता-दृष्टा हो गया, निर्मल पर्याय करूँ - ऐसी बुद्धि भी छूट गयी, राग को करूँ - यह बात तो दूर रह गयी। अरे ! ज्ञान करूँ - यह बुद्धि भी छूट जाती है, कर्तृत्वबुद्धि भी छूट जाती है और अकेला ज्ञान रह जाता है। जिसे राग करना है, राग में अटकना है, उसे क्रमबद्ध की बात जमी ही नहीं। राग को करना, राग को छोड़ना - यह भी आत्मा में नहीं है। आत्मा तो अकेला ज्ञानस्वरूप है। पर की पर्याय तो जो होनेवाली है, वह तो होती ही है, उसे मैं करूँ ही क्या ? और मेरे में जो राग आता है, उसे मैं क्या लाऊँ ? और मेरे में जो शुद्ध पर्याय आए, उसको करूँ, लाऊँ - ऐसे विकल्प से भी क्या ? अपनी पर्याय में से क्रमबद्धपर्याय होनेवाला राग और होनेवाली शुद्ध पर्याय उसको करने का विकल्प क्या ? राग और शुद्ध पर्याय के कर्तृत्व का विकल्प शुद्ध स्वभाव में है ही नहीं। अकर्त्तापना आ जाना ही मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ है।" प्रश्न : “क्रमबद्धपर्याय की बात कहकर आप सिद्ध क्या करना चाहते हैं ?" उत्तर : “क्रमबद्ध के सिद्धान्त से मूल तो अकर्त्तापना सिद्ध करना है। जैनदर्शन अकर्त्तावादी है। आत्मा परद्रव्य का तो कर्ता है ही नहीं, राग का भी कर्ता नहीं और पर्याय का भी कर्ता नहीं। पर्याय अपने ही जन्मक्षण में अपने ही षट्कारक से स्वतंत्ररूपेण जो होने योग्य है वही होती है। परन्तु इस क्रमबद्ध का निर्णय पर्याय के लक्ष से नहीं होता। क्रमबद्ध का निर्णय करने जाए तो शुद्ध चैतन्य ज्ञायकधातु के ऊपर दृष्टि जाती है और तभी जानने वाली जो पर्याय प्रगट होती है, वह क्रमबद्धपर्याय को जानती है। क्रमबद्धपर्याय का निर्णय स्वभाव-सन्मुख वाले अनन्त पुरुषार्थपूर्वक होता है। क्रमबद्ध के निर्णय का तात्पर्य वीतरागता है और यह वीतरागता पर्याय में तभी प्रगट होती है जब वीतराग स्वभाव के ऊपर दृष्टि जाती है। समयसार गाथा ३२० में कहा है कि ज्ञान बंध-मोक्ष को कर्त्ता नहीं है, किन्तु जानता ही है। अहाहा! मोक्ष को ज्ञान जानता है: मोक्ष का करता है - ऐसा नहीं कहा। अपने में होनेवाली क्रमसर पर्याय का कर्ता ऐसा (35)
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
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