SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैतन्य चमत्कार प्रश्न : "तो क्या केवली पर को जानते नहीं?" उत्तर : "कौन कहता है ? जानते तो वे सभी पदार्थ हैं।" प्रश्न: "फिर उनकेपर केजानने कोव्यवहार क्यों कहा?" उत्तर : “पर है, इसलिए तथा तन्मय होकर नहीं जानते इसलिए भी।” प्रश्न : “क्रमबद्ध मानने से सब गड़बड़ हो जाता है।" उत्तर : “गड़बड़ तो क्रमबद्ध नहीं मानने से होता है। क्रमबद्ध मानने से तो सब गड़बड़ उड़ जाती है। वस्तु मे तो कहीं गड़बड़ है नहीं, वह तो पूर्ण व्यवस्थित है। अज्ञानी की मति ही गड़बड़ा रही है । सो क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से मति व्यवस्थित हो जाती है।" प्रश्न : “जब हमारे करने से कुछ होता ही नहीं है तो फिर कोई कार्य क्यों करेगा ? जब कोई बनाएगा नहीं तो यह पंडाल कैसे बनेगा? कारखाने कैसे चलेंगे? सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाएगी।" उत्तर : "कौन पंडाल बनाता है, कौन कारखाने चलाता है ? अज्ञानी पंडाल बनाने और कारखाने चलाने का अभिमान करते हैं - यह बात तो सही है, पर बनाता या चलाता कोई किसी को नहीं। जब एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्त अभाव है तो तब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में क्या कर सकता है? अत्यन्त अभाव का अर्थ क्या? यही कि एक द्रव्य दूसरे क्रमबद्धपर्याय द्रव्य को छूता भी नहीं है। छए तो अभाव नहीं रहे।" प्रश्न : “यदि आप ऐसा उपदेश देंगे तो लोग आलसी हो जायेंगे। जब उसके करने से कुछ होता ही नहीं तो कोई पुरुषार्थ क्यों करेगा?" उत्तर : “क्रमबद्धपर्याय के निर्णय में ही सच्चा पुरुषार्थ है; क्योंकि क्रमबद्ध का निर्णय करने में ज्ञायक-स्वभाव पर दृष्टि जाती है। जिसप्रकार ज्ञायक में भव नहीं; उसीप्रकार क्रमबद्ध के निर्णय करने वाले को भी भव नहीं होते, एक-दो भव रहते हैं, वे भी ज्ञेय तरीके से रहते हैं। अपनी मति में क्रमबद्ध की व्यवस्था को व्यवस्थित करना ही सच्चा पुरुषार्थ है।" प्रश्न : “पर्याय तो व्यवस्थित ही होने वाली है अर्थात् पुरुषार्थ की पर्याय तो जब उसके प्रगट होने का काल आएगा तभी प्रगट होगी - ऐसी स्थिति में अब करने क्या रह गया?" उत्तर : “व्यवस्थित पर्याय है - ऐसा जाना कहाँ से ? व्यवस्थित पर्याय द्रव्य में है, तब तो द्रव्य के ऊपर ही दृष्टि करनी है। पर्याय के क्रम के ऊपर दृष्टि न करके, क्रमसरपर्याय जिसमें से प्रगट होती है, ऐसे द्रव्य सामान्य के ऊपर ही दृष्टि करनी है, क्योंकि उस पर दृष्टि करने में अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है। क्रमबद्ध के सिद्धान्त से अकर्त्तापना सिद्ध होता है, (34)
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy