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________________ चैतन्य चमत्कार बंबई आदि में भी कहा था। तुमने नोट भी किया था, आत्मधर्म (अप्रैल, १९७८) में छापा भी है।" "वहाँ तो कहा था, पर सोनगढ़ में तो नहीं कहते?" "वहाँ भी कहते हैं। मद्य-मांस की तो बात ही क्या, सोनगढ़ में तो कोई रात्रि में भोजन भी नहीं करता। जमीकन्द और अनछने पानी का प्रयोग भी नहीं करते।" “यह तो ठीक कि वहाँ कोई रात्रि में भोजन आदि नहीं करता और आप कहते भी हैं, पर कभी-कभी ही कहते हैं, हमेशा क्यों नहीं कहते ? आपको ऐसी बात कहते हमने बहुत कम सुना है ?" “तुम जैसे लोग हमसे तत्त्व का मर्म सुनने आते हैं। अनुभव की-अध्यात्म की गहरी बातें सुनने आते हैं; तुमसे ऐसी बातें कहें ? भाई ! बात यह है हम पहिले तो बहुत कहते थे। पर अब ऐसी बातों की अपेक्षा तत्त्व की गहरी चर्चा करने का विकल्प आता है। मूल बात तो एक आत्मा के अनुभव की है, उसके बिना यह मनुष्य भव व्यर्थ ही चला जायगा। यह सब तो अनन्त बार किया, पर आत्मा के अनुभव बिना इससे क्या होता है ? भव का अभाव तो होने से रहा । आत्मानुभव के पूर्व इनके सेवन के अभावमात्र से आत्मा का अनुभव हो जावेगा - ऐसी बात नहीं है। जब तक राग से भिन्न आत्मा वह तो नाममात्र का भी जैन नहीं अपने अनुभव में नहीं आयेगा तब तक यह सब ठीक ही है, कुछ विशेष दम नहीं है - इन बातों में। इन बातों की अधिक चर्चा से लाभ भी क्या है ? जैन समाज में मद्य-मांस तो है ही नहीं। जब इन चीजों का कोई सेवन ही नहीं करता, तब इनकी चर्चा बार-बार करने से लाभ भी क्या है?" जब मैंने कहा कि “जैन समाज में भी यह रोग लगने लगा है।" तब आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोले “क्या कहते हो ? ऐसा नहीं हो सकता।" "नहीं साहब! हो रहा है।" "हम तो तुम्हारे मुँह से सुन रहे हैं, यह तो बहुत बुरी बात है। कैसा समय आ गया है। इस अमूल्य मनुष्यभव और जैनकुल में यह सब ? क्या होगा इनका ? कहाँ जायेंगे ऐसे लोग?" कहते-कहते एकदम गम्भीर हो गये। उनकी गम्भीरता को भंग करते हुए जब मैंने कहा - "इसमें क्या ? यह तो सब परद्रव्य हैं। जब एक द्रव्य दूसरे का कुछ भला-बुरा करता ही नहीं, एक द्रव्य का दूसरे पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता, तब फिर क्यों इनके खाने-पीने का आनन्द छोड़ा जाय?" तब कहने लगे - "भाई ! तुम कैसी बातें करते हो? खाने-पीने में आनन्द है ही कहाँ ? ये सब तो दुःखरूप हैं, (25)
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
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