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________________ १०८ छहढाला पाँचवीं ढाल १०९ और दूध की भाँति (मेला) मिले हुए हैं, (पै) तथापि (भेला) एकरूप (नहिं) नहीं हैं, (भिन्न-भिन्न) पृथक्-पृथक् हैं (तो) तो फिर (प्रकट) जो बाह्य में प्रकट रूप से (जुदे) पृथक् दिखाई देते हैं - ऐसे (धन) लक्ष्मी, (धामा) मकान, (सुत) पुत्र और (रामा) स्त्री आदि (मिलि) मिलकर (इक) एक (क्यों) कैसे (कै) हो सकते हैं? भावार्थ :-जिसप्रकार दूध और पानी एक आकाश-क्षेत्र में मिले हुए हैं, परन्तु अपने-अपने गुण आदि की अपेक्षा से दोनों बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं; उसीप्रकार यह जीव और शरीर भी मिले हुए - एकाकार दिखाई देते हैं, तथापि वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादि की अपेक्षासे (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से) बिलकुल पृथक्-पृथक् हैं तो फिर प्रकटरूप से भिन्न दिखाई देनेवाले - ऐसे मोटरगाड़ी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ कैसे एकमेक हो सकते हैं? अर्थात् स्त्री-पुत्रादि कोई भी परवस्तु अपनी नहीं है - इसप्रकार सर्व पदार्थों को अपने से भिन्न जानकर, स्वसन्मुखतापूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह “अन्यत्व भावना" है।।७।। ६.अशुचि भावना (नव द्वार) नौ दरवाजे (बहैं) बहते हैं (अस) ऐसे (देह) शरीर में (यारी) प्रेम-राग (किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है? भावार्थ :- यह शरीर तो मांस, रक्त, पीव, विष्टा आदि की थैली है और वह हड्डी, चर्बी आदि से भरा होने के कारण अपवित्र है तथा नौ द्वारों से मैल बाहर निकलता है - ऐसे शरीर के प्रति मोह-राग कैसे किया जा सकता है? यह शरीर ऊपर से तो मक्खी के पंख समान पतली चमड़ी में मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहर से सुन्दर लगता है, किन्तु यदि उसके भीतरी हाल तक विचार किया जाये तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार या राग करना व्यर्थ है। यहाँ शरीर को मलिन बतलाने का आशय - भेदज्ञान द्वारा शरीर के स्वरूप का ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पद में रुचि करना है, किन्तु शरीर के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न कराने का आशय नहीं। शरीर तो उसके अपने स्वभाव से ही अशुचिमय है और यह भगवान आत्मा निजस्वभाव से ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है। इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्मा की सन्मुखता द्वारा अपनी पर्याय में शुचिता की (पवित्रता की) वृद्धि करता है वह “अशुचि भावना" है ।।८।। ७. आस्रव भावना पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितै मैली। नव द्वार बह घिनकारी, अस देह करे किम यारी ।।८।। अन्वयार्थ :- (जो ) (पल) मांस (रुधिर) रक्त (राध) पीव और (मल) विष्टा की (थैली) थैली है, (कीकस) हड्डी, (वसादित) चरबी आदि से (मैली) अपवित्र है और जिसमें (घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले जो योगन की चपलाई, ताते है आस्रव भाई। आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे।।९।।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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