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________________ १०६ छहढाला पाँचवीं ढाल नहीं होते। (सब) यह सब (स्वारथ के) अपने स्वार्थ के (भीरी) सगे (हैं) (करै है) करता है। (संसार) संसार (सब विधि) सर्व प्रकार से (असारा) सार रहित है, (यामें) इसमें (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र भी (नाहिं) नहीं भावार्थ:-जीव की अशुद्ध पर्याय वह संसार है। अज्ञान के कारण जीव चार गति में दुःख भोगता है और पाँच (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भाव) परावर्तन करता रहता है, किन्तु कभी शांति प्राप्त नहीं करता; इसलिये वास्तव में संसारभाव सर्वप्रकार से सार रहित है, उसमें किंचित्मात्र सुख नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार सुख की कल्पना की जाती है, वैसा सुख का स्वरूप नहीं है और जिसमें सुख मानता है, वह वास्तव में सुख नहीं है; किन्तु वह परद्रव्य के आलम्बनरूप मलिनभाव होने से आकुलता उत्पन्न करनेवाला भाव है। निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्रुवस्वभाव में संसार है ही नहीं - ऐसा स्वोन्मुखता-पूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता में वृद्धि करता है, वह “संसार भावना" है ।।५।। ४. एकत्व भावना शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एक हि ते ते । भावार्थ :- जीव का सदा अपने स्वरूप से और पर से विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा अहित कर सकता है, पर का कुछ नहीं कर सकता है। इसलिये जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता) वह स्वयं अकेला ही भोगता है; उसमें अन्य कोई - स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब परपदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीव को ज्ञेयमात्र हैं, इसलिये वे वास्तव में जीव के सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकर दःखी होता है। पर के द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर पर के साथ कर्तृत्व-ममत्व का अधिकार माना है; वह अपनी भूल से ही अकेला दुःखी होता है। संसार में और मोक्ष में यह जीव अकेला ही है - ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्मा के साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्व की वृद्धि करता है, यह “एकत्व भावना” है।।६।। ५. अन्यत्व भावना सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ।।६।। अन्वयार्थ :- (जेते) जितने (शुभ-अशुभ करमफल) शुभ और अशुभ कर्म के फल हैं, (ते ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भौगे) भोगता है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला। तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिलि सुत रामा ।।७।। अन्वयार्थ :- (जिय-तन) जीव और शरीर (जल-पय-ज्यों) पानी 58
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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