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________________ ११० छहढाला पाँचवीं ढाल अन्वयार्थ :- (भाई) हे भव्यजीव! (योगन की) योगों की (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तात) उससे (आस्रव) आस्रव (है) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त (दुःखकार) दुःखदायक है, इसलिये (बुधिवन्त) बुद्धिमान (तिन्हैं) उसे (निरवेरे) दूर करें। भावार्थ :- विकारी शुभाशुभभावरूप जो अरूपी दशा जीव में होती है, वह भाव-आस्रव है और उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणों का स्वयं-स्वतः आना (आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्यायें निमित्तमात्र हैं।) पुण्य और पाप दोनों आस्रव और बन्ध के भेद हैं। पुण्य :- दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभराग सरागी जीव को होते हैं; वे अरूपी अशुभ भाव हैं और वह भावपुण्य है। तथा उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणों का स्वयं-स्वतः आना (आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होना), सो द्रव्यपुण्य है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र है।) पाप :- हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि जो अशुभभाव हैं; वह भावपाप है और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलों का आगमन होना, सो द्रव्यपाप है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्यायें निमित्त हैं।)। परमार्थ से (वास्तव में) पुण्य-पाप (शुभाशुभ) आत्मा को अहितकर हैं तथा वह आत्मा की क्षणिक अशुद्ध अवस्था है। द्रव्य पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्मा का हित-अहित नहीं कर सकते - ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीव को होता है और इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के अवलम्बन के बल से जितने अंश में आस्रवभाव को दूर करता है उतने अंश में उसे वीतरागता की वृद्धि होती है; उसे “आस्रव भावना" कहते हैं ॥९॥ ८.संवर भावना जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना। तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।।१०।। अन्वयार्थ :- (जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और (पाप) अशुभभाव (नहिं कीना) नहीं किये तथा मात्र (आतम) आत्मा के (अनुभव) अनुभव में [शुद्ध उपयोग में] (चित) ज्ञान को (दीना) लगाया है, (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि) कर्मों को (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके (सुख) सुख का (अवलोके) साक्षात्कार किया है। ___ भावार्थ :- आस्रव का रोकना, सो संवर है। सम्यग्दर्शनादि द्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते हैं। शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग दोनों बन्ध के कारण हैं - ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहले से ही जानता है। यद्यपि साधक को निचली भूमिका में शुद्धता के साथ अल्प शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनों को बन्ध का कारण मानता है, इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जितने अंश में शुद्धता करना है उतने अंश में उसे संवर होता है, और वह क्रमशः शुद्धता में वृद्धि करके पूर्ण शुद्धता (संवर) प्राप्त करता है। यह “संवर भावना” है।।१०।। ___९. निर्जरा भावना 60
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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