SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९० छहढाला (किसी ) किसी की (जय) विजय का [अथवा ] (हार) किसी की हार का (न चिन्तै) विचार न करना [ उसे अपध्यान- अनर्थदंडव्रत कहते हैं ।] २. (वनज) व्यापार और (कृषि तँ) खेती से (अघ) पाप (होय) होता है; इसलिये (सो) उसका (उपदेश) उपदेश (न देय) न देना [ उसे पापोपदेश- अनर्थदंडव्रत कहा जाता है ।] ३. (प्रमाद कर ) प्रमाद से [ बिना प्रयोजन ] (जल) जलकायिक (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक, (पावक) अग्निकायिक [ और वायुकायिक] जीवों का (न विराधै) घात न करना [सो प्रमादचर्या - अनर्थदंडव्रत कहलाता है।] ४. (असि) तलवार, (धनु) धनुष्य, (हल) हल [ आदि ] (हिंसोपकरण) हिंसा होने में कारणभूत पदार्थों को (दे) देकर (यश) यश ( नहिं लाधै) न लेना [सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है।] ५. (रागद्वेष-करतार) राग और द्वेष उत्पन्न करनेवाली (कथा) कथाएँ (कबहूँ) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना [सो दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहा जाता है ।] (और हु) तथा अन्य भी ( अघहेतु) पाप के कारण (अनरथ दंड) अनर्थदंड हैं (तिन्हें उन्हें भी ( न कीजै) नहीं करना चाहिए । भावार्थ :- ( १ ) किसी के धन का नाश, पराजय अथवा विजय आदि का विचार न करना, सो पहला अपध्यान- अनर्थदंडव्रत कहलाता है। (२) हिंसारूप पापजनक व्यापार तथा खेती आदि का उपदेश न देना, वह पापोपदेश- अनर्थदंडव्रत है । (३) प्रमादवश होकर पानी ढोलना, जमीन खोदना, वृक्ष काटना, आग लगाना - इत्यादि का त्याग करना अर्थात् पाँच स्थावरकाय के जीवों की हिंसा न करना, उसे प्रमादचर्या - अनर्थडंदव्रत कहते हैं। १. अनर्थदंड दूसरे भी बहुत से हैं। पाँच तो स्थूलता की अपेक्षा से अथवा दिग्दर्शनमात्र हैं। वे सब पापजनक हैं, इसलिये उनका त्याग करना चाहिए। पापजनक निष्प्रयोजन कार्य अनर्थदंड कहलाता है। 50 चौथी ढाल ९१ (४) यश प्राप्ति के लिए, किसी के माँगने पर हिंसा के कारणभूत हथियार न देना, सो हिंसादान - अनर्थदंडव्रत कहलाता है। (५) राग-द्वेष उत्पन्न करनेवाली विकथा और उपन्यास या शृंगारिक कथाओं के श्रवण का त्याग करना, सो दुःश्रुति-अनर्थदंडव्रत कहलाता है ।। १३ ।। सामायिक, प्रोषध, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागव्रत धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये। परव चतुष्टयमाहिं, पाप तज प्रोषध धरिये ।। भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै । मुनि को भोजन देय फेर, निज करहि अहारै ।। १४ ।।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy