SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला चौथी ढाल बजारा। अन्वयार्थ :- (जल-मृतिका विन) पानी और मिट्टी के अतिरिक्त (और कछु) अन्य कोई वस्तु (अदत्ता) बिना दिये (नाहिं) नहीं (ग्रहे) लेना [उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं] (निज) अपनी (वनिता विन) स्त्री के अतिरिक्त (सकल नारिसौं) अन्य सर्व स्त्रियों से (विरता) विरक्त (रहे) रहना [वह ब्रह्मचर्याणुव्रत है] (अपनी) अपनी (शक्ति विचार) शक्ति का विचार करके (परिग्रह) परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) रखना [सो परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है] (दश दिश) दशों दिशाओं में (गमन) जाने-आने की (प्रमाण) मर्यादा (ठान) रखकर (तसु) उस (सीम) सीमा का (न नाखै) उल्लंघन न करना [सो दिव्रत है] । भावार्थ :- जन-समुदाय के लिए जहाँ रोक न हो तथा किसी विशेष व्यक्ति का स्वामित्व न हो - ऐसे पानी तथा मिट्टी जैसी वस्तु के अतिरिक्त परायी वस्तु (जिस पर अपना स्वामित्व न हो) उसके स्वामी के दिये बिना न लेना (तथा उठाकर दूसरे को न देना), उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं। अपनी विवाहित स्त्री के सिवा अन्य सर्व स्त्रियों से विरक्त रहना, सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है। (पुरुष को चाहिए कि अन्य स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री समान माने तथा स्त्री को चाहिए कि अपने स्वामी के अतिरिक्त अन्य पुरुषों को पिता, भाई तथा पुत्र समान समझे)। __ अपनी शक्ति और योग्यता का ध्यान रखकर जीवनपर्यन्त के लिए धनधान्यादि बाह्य-परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) बाँधकर उससे अधिक की इच्छा न करे, उसे परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहते हैं । दशों दिशाओं में जाने-आने की मर्यादा निश्चित करके जीवनपर्यंत उसका उल्लंघन न करना, सो दिव्रत है। दिशाओं की मर्यादा निश्चित की जाती है, इसलिये उसे दिग्व्रत कहा जाता है। देशव्रत (देशावगाशिक) नामक गुणव्रत का लक्षण ताहू में फिर ग्राम गली, गृह बाग बजारा। गमनागमन प्रमाण ठान अन, सकल निवारा ।।१२ ।। (पूर्वार्द्ध) अन्वयार्थ :- (फिर) फिर (ताहू में) उसमें [किन्हीं प्रसिद्ध-प्रसिद्ध (ग्राम) गाँव (गली) गली (ग्रह) मकान (बाग) उद्यान तथा (बजारा) बाजार तक (गमनागमन) जाने-आने का (प्रमाण) माप (ठान) रखकर (अन) अन्य (सकल) सबका (निवारा) त्याग करना [उसे देशव्रत अथवा देशावगाशिक व्रत कहते हैं। भावार्थ :- दिव्रत में जीवनपर्यन्त की गई जाने-आने के क्षेत्र की मर्यादा में भी (घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि काल के नियम से) किसी प्रसिद्ध ग्राम, मार्ग, मकान तथा बाजार तक जाने-आने की मर्यादा करके उससे आगे की सीमा में न जाना, सो देशव्रत कहलाता है।।११।। (पूर्वार्द्ध)। अनर्थदण्डव्रत के भेद और उनका लक्षण काहू की धनहानि, किसी जय-हार न चिन्तै । देय न सो उपदेश, होय अघ वनज कृषी तैं ।।१२ ।। (उत्तरार्द्ध) १. टिप्पणी :- (१) ये पाँच (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण) अणुव्रत हैं। हिंसादिक को लोक में भी पाप माना जाता है; उनका इन व्रतों में एकदेश (स्थूलरूप से) त्याग किया गया है; इसी कारण वे अणुव्रत कहलाते हैं। (२) निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक प्रथम दो कषायों का अभाव हुआ हो, उस जीव को सच्चे अणुव्रत होते हैं। जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन न हो, उसके व्रतों को सर्वज्ञ ने (अज्ञानव्रत) कहा है। कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधै। असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै ।। राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै । और हु अनरथ दंड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै ।।१३।। अन्वयार्थ :- १. (काहू की) किसी के (धनहानि) धन के नाश का
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy