SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला चौथी ढाल अन्वयार्थ :- (उर) मन में (समताभाव) निर्विकल्पता अर्थात् शल्य के अभाव को (धर) धारण करके (सदा) हमेशा (सामायिक) सामायिक (करिये) करना [सो सामायिक शिक्षाव्रत है;] (परव चतुष्टयमाहि) चार पर्व के दिनों में (पाप) पापकार्यों को छोड़कर (प्रोषधो) प्रोषधोपवास (धरिये) करना [सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है;] (भोग) एकबार भोगा जा सके - ऐसी वस्तुओं का तथा (उपभोग) बारम्बार भोगा जा सके - ऐसी वस्तुओं का (नियमकरि) परिमाण करके-मर्यादा रखकर (ममत) मोह (निवार) छोड़दे[सोभोग-उपभोगपरिमाणव्रत है;] (मुनि को) वीतरागी मुनि को (भोजन) आहार (देय) देकर (फेर) फिर (निज अहारै) स्वयं भोजन करे [सो अतिथिसंविभागवत कहलाता है। भावार्थ :- स्वोन्मुखता द्वारा अपने परिणामों को स्थिर करके प्रतिदिन विधिपूर्वक सामायिक करना, सो सामायिक शिक्षाव्रत है।१ । प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी के दिन कषाय और व्यापारादि कार्यों को छोड़कर (धर्मध्यानपूर्वक) प्रोषधसहित उपवास करना, सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है।२। परिग्रहपरिमाण-अणुव्रत में निश्चय की हुई भोगोपभोग की वस्तुओं में जीवनपर्यंत के लिए अथवा किसी निश्चित समय के लिए नियम करना, सो भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहलाता है।३ । निग्रंथ मुनि आदि सत्पात्रों को आहार देने के पश्चात् स्वयं भोजन करना, सो अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत यों श्रावक-व्रत पाल, स्वर्ग सोलह उपजावै। तहँतें चय नरजन्म पाय, मुनि लै शिव जावै ॥१५ ।। अन्वयार्थ :- जो जीव (बारह व्रत के) बारह व्रतों के (पन-पन) पाँचपाँच (अतिचार) अतिचारों को (न लगावै) नहीं लगाता और (मरणसमय) मृत्यु-काल में(संन्यास) समाधि (धार) धारण करके (तसु) उनके (दोष) दोषों को (नशा) दूर करता है, वह (यों) इसप्रकार (श्रावक-व्रत) श्रावक के व्रत (पाल) पालन करके (सोलह) सोलहवें (स्वर्ग) स्वर्ग तक (उपजावै) उत्पन्न होता है [और] (तहँत) वहाँ से (चय) मृत्यु प्राप्त करके (नरजन्म) मनुष्यपर्याय (पाय) पाकर (मुनि) मुनि (8) होकर (शिव) मोक्ष (जावै) जाता है। भावार्थ :- जो जीव श्रावक के ऊपर कहे हुए बारह व्रतों का विधिपूर्वक जीवनपर्यंत पालन करते हुए उनके पाँच-पाँच अतिचारों को भी टालता है और मृत्युकाल में पूर्वोपार्जित दोषों का नाश करने के लिए विधिपूर्वक समाधिमरण (संल्लेखना') धारण करके उसके पाँच अतिचारों को भी दूर करता है, वह आयु पूर्ण होने पर मृत्यु प्राप्त करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है। फिर देवायु पूर्ण होने पर मनुष्य भव पाकर, मुनिपद धारण करके मोक्ष (पूर्ण शुद्धता) प्राप्त करता है। ___ सम्यक्चारित्र की भूमिका में रहनेवाले राग के कारण वह जीव स्वर्ग में देवपद प्राप्त करता है। धर्म का फल संसार की गति नहीं है, किन्तु संवरनिर्जरारूप शुद्धभाव है; धर्म की पूर्णता वह मोक्ष है। चौथी ढाल का सारांश सम्यग्दर्शन के अभाव में जो ज्ञान होता है, उसे कुज्ञान (मिथ्याज्ञान) कहा कहलाता है।॥१४॥ निरतिचार श्रावकव्रत पालन करने का फल बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै। मरण-समय संन्यास धारि तसु दोष नशावै।। १. क्रोधादि के वश होकर विष, शस्त्र अथवा अन्नत्याग आदि से प्राणत्याग किया जाता है, उसे 'आत्मघात' कहते हैं। 'संल्लेखना' में सम्यग्दर्शनसहित आत्मकल्याण (धर्म) के हेतु से काया और कषाय को कृश करते हुए सम्यक् आराधनापूर्वक समाधिमरण होता है; इसलिये वह आत्मघात नहीं, किन्तु धर्मध्यान है।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy