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________________ छहढाला चौथी ढाल पालन मुनिराज करते हैं और देशचारित्र का पालन श्रावक करते हैं। इस चौथी ढाल में देशचारित्र का वर्णन किया गया है। सकलचारित्र का वर्णन छठवीं ढाल में किया जायेगा । त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्याग करके निष्प्रयोजन स्थावर जीवों का घात न करना, सो 'अहिंसा अणुव्रत है। दूसरे के प्राणों को घातक, कठोर तथा निंदनीय वचन न बोलना (तथा दूसरों से न बुलवाना, न अनुमोदना; सो सत्य-अणुव्रत है)। अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत तथा दिग्व्रत का लक्षण जल-मृतिका विन और नाहिं कछु गहै अदत्ता। निज वनिता विन सकल नारिसौं रहै विरत्ता ।। अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै। दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै ।।११।। एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै ।। त्रसहिंसा को त्याग, वृथा थावर न सँहारै । पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै ।।१०।। अन्वयार्थ :- (सम्यग्ज्ञानी) सम्यग्ज्ञानी (होय) होकर (बहुरि) फिर (दिढ़) दृढ़ (चारित) सम्यक्चारित्र (लीजै) का पालन करना चाहिए; (तसु) उसके [उस सम्यक्चारित्र के (एकदेश) एकदेश (अरु) और (सकलदेश) सर्वदेश [ऐसे दो] (भेद) भेद (कहीजै) कहे गये हैं। [उनमें] (त्रसहिंसा को) त्रस जीवों की हिंसा का (त्याग) त्याग करना और (वृथा) बिना कारण (थावर) स्थावर जीवों का (न सँहारै) घात न करना [वह अहिंसा-अणुव्रत कहलाता है] (पर वधकार) दूसरों को दुःखदायक, (कठोर) कठोर [और] (निंद्य) निंदनीय (वयन) वचन (नहिं उचारै) न बोलना [वह सत्य-अणुव्रत कहलाता है। भावार्थ :- सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके सम्यक्चारित्र प्रकट करना चाहिए। उस सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं - (१) एकदेश (अणु, देश, स्थूल) चारित्र और (२) सर्वदेश (सकल, महा, सूक्ष्म) चारित्र । उनमें सकल चारित्र का १. टिप्पणी :- (१) अहिंसाणुव्रत का धारण करनेवाला जीव “यह जीव घात करने योग्य है, मैं इसे मारूँ" - इसप्रकार संकल्प सहित किसी त्रस जीव की संकल्पी हिंसा नहीं करता; किन्तु इस व्रत का धारी आरम्भी, उद्योगिनी तथा विरोधिनी हिंसा का त्यागी नहीं होता। (२) प्रमाद और कषाय में युक्त होने से जहाँ प्राणघात किया जाता है, वहीं हिंसा का दोष लगता है; जहाँ वैसा कारण नहीं है, वहाँ प्राणघात होने पर भी हिंसा का दोष नहीं लगता । जिसप्रकार - प्रमादरहित मुनि गमन करते हैं; वैद्य - डॉक्टर करुणाबुद्धिपूर्वक रोगी का उपचार करते हैं; जहाँ सामनेवाले का प्राणघात होने पर भी हिंसा का दोष नहीं है। 48
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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