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________________ ६० छन्द १४ (पूर्वार्द्ध) तपकौ मदन मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जानै । मद धारै तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै ।। छहढाला अन्वयार्थ :- [जो जीव] (जो) यदि (पिता) पिता आदि पितृपक्ष के स्वजन (भूप) राजादि (होय) हों (तो) तो (मद) अभिमान (न ठाने) नहीं करता, [यदि] (मातुल) मामा आदि मातृपक्ष के स्वजन (नृप) राजादि (हो) हों तो (मद) अभिमान (न) नहीं करता; (ज्ञानकौ) विद्या का (मदन) अभिमान नहीं करता; (धनकौ) लक्ष्मी का (मद भानै) अभिमान नहीं करता; (बलकौ ) शक्ति का (मद भानै) अभिमान नहीं करता; ( तपकी) तप का (मद न ) अभिमान नहीं करता; (जु) और (प्रभुता कौ) ऐश्वर्य, बड़प्पन का (मद न करै) अभिमान नहीं करता (सो) वह (निज) अपने आत्मा को (जाने) जानता है। [यदि जीव उनका] (मद) अभिमान (धारै) रखता है तो (यही) ऊपर कहे हुए मद (वसु) आठ (दोष) दोषरूप होकर (समकितकौ) सम्यक्त्व को- सम्यग्दर्शन को (मल) दूषित (ठानै) करते हैं। भावार्थ:- पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं । (१) पिता आदि पितृपक्ष में राजादि प्रतापी पुरुष होने से ( मैं राजकुमार हूँ, आदि) 35 तीसरी ढाल ६१ अभिमान करना, सो कुल-मद है। (२) मामा आदि मातृपक्ष में राजादि प्रतापी पुरुष होने का अभिमान करना, सो जाति - मद है (३) शारीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप - मद है । (४) अपनी विद्या का अभिमान करना, सो ज्ञान - मद है । (५) अपनी धन-सम्पत्ति का अभिमान करना, सो धन-मद है। (६) अपनी शारीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल मद है (७) अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद है, तथा (८) अपने बड़प्पन और आज्ञा का गर्व करना, सो प्रभुता - मद है । कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता - ये आठ मद - दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ का गर्व नहीं करता, वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है । यदि उनका गर्व करता है तो ये मद सम्यग्दर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं । (१३ उत्तरार्द्ध तथा १४ पूर्वार्द्ध) । छन्द १४ ( उत्तरार्द्ध) छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष कुगुरु- कुदेव - कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचर है। जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हेँ न नमन करै है ।। १४ ।। अन्वयार्थ :- [ सम्यग्दृष्टि जीव] (कुगुरु-कुदेव- कुवृष सेवक की कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की तथा उनके सेवक की ( प्रशंस) प्रशंसा ( नहिं उचरै है ) नहीं करता । (जिन) जिनेन्द्रदेव ( मुनि) वीतरागी मुनि [ और ] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन) के अतिरिक्त [ जो ] ( कुगुरादि) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म हैं (तिन्हें) उन्हें (नमन) नमस्कार (न करे है) नहीं करता । भावार्थ :- कुगुरु, कुदेव, कुधर्म; कुगुरु सेवक, कुदेव सेवक तथा कुधर्म सेवक - ये छह अनायतन (धर्म के अस्थान) दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को (भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण भी) नमस्कार नहीं करता; क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषि
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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