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________________ ५८ छहढाला तीसरी ढाल ___ अन्वयार्थ :- १. (जिन वच में) सर्वज्ञदेव के कहे हुए तत्त्वों में (शंका) संशय-सन्देह (न धार) धारण नहीं करना [सो निःशंकित अंग है]; २. (वृष) धर्म को (धार) धारण करके (भव-सुख-वांछा) सांसारिक सुखों की इच्छा (भान) न करे [सो निःकांक्षित अंग है]; ३. (मुनि-तन) मुनियों के शरीरादि (मलिन) मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करना [सो निर्विचिकित्सा अंग है]; ४. (तत्त्व-कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्त्वों की (पिछानै) पहिचान रखे [सो अमूढदृष्टि अंग है]; ५. (निजगुण) अपने गुणों को (अरु) और (पर औगुण) दूसरे के अवगुणों को (ढाँके) छिपाये (वा) तथा (निजधर्म) अपने आत्मधर्म को (बढ़ावै) बढ़ाये अर्थात् निर्मल बनाये [सो उपगूहन अंग है]; ६. (कामादिक कर) काम-विकारादि के कारण (वृषः) धर्म से (चिगते) च्युत होते हुए (निज-पर को) अपने को तथा पर को (सु दिढ़ावै) उसमें पुनः दृढ़ करे सो स्थितिकरण अंग है]; ७.(धर्मी सों) अपने साधर्मीजनों से (गौवच्छ-प्रीति-सम) बछड़े पर गाय की प्रीति के समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है] और ८. (जिनधर्म) जैनधर्म की (दिपावै) शोभा में वृद्धि करना [सो प्रभावना अंग है।] (इन गुण ) इन [आठ] गुणों से (विपरीत) उल्टे (वसु) आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर करना चाहिए। भावार्थ :- (१) तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है तथा अन्य प्रकार से नहीं है - इसप्रकार यथार्थ तत्त्वों में अचल श्रद्धा होना, सो निःशंकित अंग कहलाता है। टिप्पणी :- अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव भोगों को कभी भी आदरणीय नहीं मानते; किन्तु जिसप्रकार कोई बन्दी कारागृह में (इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है, उसीप्रकार वे अपने पुरुषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रुचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और नि:कांक्षित अंग होने में कोई बाधा नहीं आती। (२) धर्म सेवन करके उसके बदले में सांसारिक सुखों की इच्छा न करना, उसे निःकांक्षित अंग कहते हैं। (३) मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं। (४) सच्चे और झूठे तत्त्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न फँसना वह अमूढदृष्टि अंग है। (५) अपनी प्रशंसा करानेवाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना), सो उपगूहन अंग है। टिप्पणी :- उपगूहन का दूसरा नाम "उपवृंहण” भी जिनागम में आता है; जिससे आत्मधर्म में वृद्धि करने को भी उपगूहन कहा जाता है। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के २७वें श्लोक में भी यही कहा है : धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया। परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपवृंहगुणार्थम् ।।२७ ।। (६) काम, क्रोध, लोभ आदि किसी भी कारण से (सम्यक्त्व और चारित्र से) भ्रष्ट होते हुए अपने को तथा पर को धर्म में उसमें स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। (७) अपने साधर्मी जन पर बछड़े से प्यार रखनेवाली गाय की भाँति निरपेक्ष प्रेम रखना, सो वात्सल्य अंग है। (८) अज्ञान-अन्धकार को दूर विद्या-बल-बुद्धि आदि के द्वारा शास्त्र में कही हुई योग्य रीति से अपने सामर्थ्यानुसार जैनधर्म का प्रभाव प्रकट करना, वह प्रभावना अंग है। - इन अंगों (गुणों) से विपरीत १. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. मूढदृष्टि, ५. अनुपगूहन, ६. अस्थितिकरण, ७. अवात्सल्य और ८. अप्रभावना - ये सम्यक्त्व के आठ दोष हैं। इन्हें सदा दूर करना चाहिए। (१२-१३ पूर्वार्द्ध) छन्द १३ (उत्तरार्द्ध) मद नामक दोष के आठ प्रकार पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठाने । मद न रूपकी मद न ज्ञानको, धन बलको मद भानै ।।१३।।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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