SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला तीसरी ढाल हो जाता है। कुगुरु-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा - ये तीन भी सम्यक्त्व के मूढ़ता नामक दोष हैं।१४ । अव्रती सम्यग्दृष्टि की देवों द्वारा पूजा और गृहस्थपने में अप्रीति दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यग्दरश सजे हैं। चरितमोह वश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं।। गेही, पै गृह में न रचें ज्यों, जलते भिन्न कमल है। नगर नारिको प्यार यथा, कादे में हेम अमल है।।१५।। पानी से अलिप्त रहता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि घर में रहते हुए भी गृहस्थदशा में लिप्त नहीं होता, उदासीन (निर्मोह) रहता है। जिसप्रकार वेश्या का प्रेम मात्र पैसे से ही होता है, मनुष्य पर नहीं होता; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि का प्रेम सम्यक्त्व में ही होता है, किन्तु गृहस्थपने में नहीं होता। तथा जिसप्रकार सोना कीचड़ में पड़े रहने पर भी निर्मल रहता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थदशा में रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह उसे त्याज्य (त्यागने योग्य) मानता है।' सम्यक्त्व की महिमा, सम्यग्दृष्टि के अनुत्पत्ति स्थान तथा सर्वोत्तम सुख और सर्व धर्म का मूल प्रथम नरक विन षट् भूज्योतिष वान भवन षंड नारी। थावर विकलत्रय पशु में नहि, उपजत सम्यक् धारी ।। तीनलोक तिहुँकाल माहिं नहि, दर्शन सो सुखकारी। सकल धर्म को मूल यही, इस विन करनी दुखकारी ।।१६ ।। अन्वयार्थ :- (जे) जो (सुधी) बुद्धिमान पुरुष [ऊपर कहे हुए] (दोष रहित) पच्चीस दोषरहित [तथा] (गुणसहित) निःशंकादि आठ गुणों सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शन से (सजै हैं) भूषित हैं [उन्हें] (चरितमोह वश) अप्रत्याख्यानावरणीय चारित्रमोहनीय कर्म के उदयवश (लेश) किंचित् भी (संजम) संयम (न) नहीं है (पै) तथापि (सुरनाथ) देवों के स्वामी इन्द्र [उनकी] (जजै हैं) पूजा करते हैं; [यद्यपि वे] (गेही) गृहस्थ हैं (पै) तथापि (गृह में) घर में (न रचे) नहीं राचते। (ज्यों) जिसप्रकार (कमल) कमल (जलते) जल से (भिन्न) भिन्न है, [तथा] (यथा) जिसप्रकार (कादे में) कीचड़ में (हेम) सुवर्ण (अमल है) शुद्ध रहता है, [उसीप्रकार उनका घर में] (नगर नारिको) वेश्या के (प्यार यथा) प्रेम की भाँति (प्यार) प्रेम होता है । ___ भावार्थ :- जो विवेकी पच्चीस दोष रहित तथा आठ अंग (आठ गुण) सहित सम्यग्दर्शन धारण करते हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के तीव्र उदय से युक्त होने के कारण, यद्यपि संयमभाव लेशमात्र नहीं होता; तथापि इन्द्रादि उनकी पूजा (आदर) करते हैं। जिसप्रकार पानी में रहने पर भी कमल अन्वयार्थ :- (सम्यक्धारी) सम्यग्दृष्टि जीव (प्रथम नरक विन) पहले नरक के अतिरिक्त (षट् भू) शेष छह नरकों में - (ज्योतिष) ज्योतिषी देवों १. यहाँ वेश्या के प्रेम से मात्र अलिप्तता की तुलना की गई है। २. विषयासक्तः अपि सदा सर्वारम्भेषु वर्तमानः अपि । मोहविलासः एषः इति सर्व : मन्यते हेयम् ।।३४१।। (स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा) ३. रोगी का औषधिसेवन और बन्दी का कारागृह भी इसके दृष्टान्त हैं। 36
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy