SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रपाहुड सूत्रार्थपदविनष्ट: मिथ्यादृष्टिः हि सः ज्ञातव्यः। खेलेऽपि न कर्तव्यं पाणिपात्रं सचेलस्य ।।७।। अर्थ – जिसके सूत्र का अर्थ और पद विनष्ट है वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है इसीलिए जो सचेल है, वस्त्रसहित है उसको 'खेडे वि' अर्थात् हास्य कुतूहल में भी पाणिपात्र अर्थात् हस्तरूप पात्र से आहारदान नहीं करना। भावार्थ - सूत्र में मुनि का रूप नग्न दिगम्बर कहा है। जिसके ऐसा सूत्र का अर्थ तथा अक्षररूप पद विनष्ट है और आप वस्त्र धारण करके मुनि कहलाता है, वह जिन आज्ञा से भ्रष्ट हुआ प्रगट मिथ्यादृष्टि है, इसलिए वस्त्र सहित को हास्य कुतूहल से भी पाणिपात्र अर्थात् आहारदान नहीं करना तथा इसप्रकार भी अर्थ होता है कि ऐसे मिथ्यादष्टि को पाणिपात्र आहार लेना योग्य नहीं है, ऐसा भेष हास्य कुतूहल से भी धारण करना योग्य नहीं है कि वस्त्रसहित रहना और पाणिपात्र भोजन करना, इसप्रकार से तो क्रीड़ामात्र भी नहीं करना ।।७।। आगे कहते हैं कि जिनूसत्र से भ्रष्ट हरि-हरादिक के तुल्य हो तो भी मोक्ष नहीं पाता है - हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। तह वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।।८।। हरिहरतुल्योऽपि नरः स्वर्गं गच्छति एति भवकोटिः। तथापिन प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः॥८॥ अर्थ - जो मनुष्य सूत्र के अर्थ पद से भ्रष्ट है, वह हरि अर्थात् नारायण हर अर्थात् रुद्र इनके समान भी हो, अनेक ऋद्धि संयुक्त हो तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है। यदि कदाचित् दान पूजादिक करके पुण्य उपार्जन कर स्वर्ग चला जावे तो भी वहाँ से चय कर करोड़ों भव लेकर संसार ही में रहता है, इसप्रकार जिनागम में कहा है। ___ भावार्थ - श्वेताम्बरादिक इसप्रकार कहते हैं कि गृहस्थ आदि वस्त्रसहित को भी मोक्ष होता है, इसप्रकार सूत्र में कहा है, उसका इस गाथा में निषेध का आशय है कि जो हरिहरादिक बड़ी सामर्थ्य के धारक भी हैं तो भी वस्त्रसहित तो मोक्ष नहीं पाते हैं । श्वेताम्बरों ने सूत्र कल्पित बनाये १. पाणिपात्रे पाठान्तर सूत्रार्थ से जो नष्ट हैं वे मूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं। तुम खेल में भी नहीं धरना यह सचेलक वृत्तियाँ ।।७।। सूत्र से हों भ्रष्ट जो वे हरहरी सम क्यों न हों। स्वर्गस्थ हों पर कोटि भव अटकत फिरें ना मुक्त हों।।८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy