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________________ अष्टपाहुड अनेक, नास्तित्वरूप इत्यादि भेदरूप कहना पर्यायार्थिकनय का विषय है। दोनों ही प्रकार की प्रधानता का निषेधमात्र वचन अगोचर कहना निश्चय नय का विषय है। दोनों ही प्रकार को प्रधान करके कहना प्रमाण का विषय है इत्यादि। इसप्रकार निश्चय-व्यवहार का सामान्य अर्थात् संक्षेप स्वरूप है, उसको जानकर जैसे आगमअध्यात्म शास्त्रों में विशेषरूप से वर्णन हो उसको सूक्ष्मदृष्टि से जानना, जिनमत अनेकांतस्वरूप स्याद्वाद है और नयों के आश्रित कथन है। नयों के परस्पर विरोध को स्याद्वाद दूर करता है, इसके विरोध का तथा अविरोध का स्वरूप अच्छी तरह जानना । यथार्थ तो गुरु आम्नाय ही से होता है, परन्तु गुरु का निमित्त इस काल में विरल हो गया, इसलिए अपने ज्ञान का बल चले तबतक विशेषरूप से समझते ही रहना, कुछ ज्ञान का लेश पाकर उद्धत नहीं होना, वर्तमान काल में अल्पज्ञानी बहुत है, इसलिए उनसे कुछ अभ्यास करके उनमें महन्त बनकर उद्धत होने पर मद आ जाता है, तब ज्ञान थकित हो जाता है और विशेष समझने की अभिलाषा नहीं रहती है, तब विपरीत होकर यद्वा-तद्वा मनमाना कहने लग जाता है, उससे अन्य जीवों का श्रद्धान विपरीत हो जाता है, तब अपने अपराध का प्रसंग आता है, इसलिए शास्त्र को समुद्र जानकर अल्पज्ञरूप ही अपना भाव रखना जिससे विशेष समझने की अभिलाषा बनी रहे, इससे ज्ञान की वृद्धि होती है। अल्पज्ञानियों में बैठकर महन्तबद्धि रखे तब अपना प्राप्त ज्ञान भी नष्ट हो जाता है, इसप्रकार जानकर निश्चय-व्यवहाररूप आगम की कथन पद्धति को समझकर उसका श्रद्धान करके यथाशक्ति आचरण करना। इस काल में गुरु संप्रदाय के बिना महन्त नहीं बनना, जिन-आज्ञा का लोप नहीं करना। कोई कहते हैं - हम तो परीक्षा करके जिनमत को मानेंगे वे वृथा बकते हैं-स्वल्पबुद्धि का ज्ञान परीक्षा करने के योग्य नहीं हैं। आज्ञा को प्रधान रख करके बने जितनी परीक्षा करने में दोष नहीं है, केवल परीक्षा ही को प्रधान रखने में जिनमत से च्युत हो जाय तो बड़ा दोष आवे, इसलिए जिनकी अपने हित-अहित पर दृष्टि है, वे तो इसप्रकार जानो और जिनको अल्पज्ञानियों में महंत बनकर अपने मान, लोभ, बड़ाई, विषय-कषाय पुष्ट करने हों उनकी बात नहीं है, वे तो जैसे अपने विषय-कषाय पुष्ट होंगे वैसे ही करेंगे, उनको मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं लगता है, विपरीत को किसका उपदेश ? इसप्रकार जानना चाहिए। आगे कहते हैं कि जो सूत्र के अर्थ पद से भ्रष्ट है, उसको मिथ्यादृष्टि जानना - सुत्तत्थपयविणट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्वो। खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स ।।७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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