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________________ ४८ अष्टपाहुड हैं उनमें यह लिखा है सो प्रमाणभूत नहीं है, वे श्वेताम्बर जिनसूत्र के अर्थ पद से च्युत हो गये हैं ऐसा जानना चाहिए ।।८।। __ आगे कहते हैं कि जो जिनसूत्र से च्युत हो गये हैं, वे स्वच्छंद होकर प्रवर्तते हैं, वे मिथ्यादृष्टि उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो य। जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छदि होदि मिच्छतं ।।९।। उत्कृष्ट सिंहचरित: बहुपरिकर्मा च गुरुभारश्च । यः विहरति स्वच्छंदं पापंगच्छति भवति मिथ्यात्वम् ।।९।। अर्थ – जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंह के समान निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म अर्थात् तपश्चरणादिक्रिया विशेषों से युक्त है तथा गुरु के भार अर्थात् बड़ा पदस्थरूप है, संघ नायक कहलाता है, परन्तु जिनसूत्र से च्युत होकर स्वच्छंद प्रवर्तता है तो वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। भावार्थ - जो धर्म का नायकपना लेकर-गुरु बनकर निर्भय हो तपश्चरणादिक से बड़ा कहलाकर अपना सम्प्रदाय चलाता है, जिनसूत्र से च्युत होकर स्वेच्छाचारी प्रवर्तता है तो वह पापी मिथ्यादृष्टि ही है, उसका प्रसंग भी श्रेष्ठ नहीं है ।।९।। आगे कहते हैं कि जिनसूत्र में ऐसा मोक्षमार्ग कहा है - णिच्चेलपाणिपत्तं उवइ8 परमजिणवरिंदेहिं। एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ।।१०।। निश्चेलपाणिपात्रं उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रैः। एकोऽपि मोक्षमार्ग: शेषाश्च अमार्गाः सर्वे ।।१०।। अर्थ - जो निश्चेल अर्थात् वस्त्ररहित दिगम्बर मुद्रास्वरूप और पाणिपात्र अर्थात् हाथरूपी पात्र में खड़े-खड़े आहार करना इसप्रकार एक अद्वितीय मोक्षमार्ग तीर्थंकर परमदेव जिनेन्द्र ने उपदेश दिया है, इसके सिवाय अन्य रीति सब अमार्ग हैं। सिंह सम उत्कृष्टचर्या हो तपी गुरु भार हो। पर हो यदी स्वच्छन्द तो मिथ्यात्व है अर पाप हो ।।९।। निश्चेल एवं पाणिपात्री जिनवरेन्द्रों ने कहा। बस एक है यह मोक्षमारग शेष सब उन्मार्ग हैं ।।१०।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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