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________________ अष्टपाहुड करनेवालापना बताया है, इन दोनों ही कारणों से जगत में वंदने, पूजने योग्य हैं। इसलिए इसप्रकार भ्रम नहीं करना कि तीर्थंकर कैसे पूज्य हैं, यह तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग हैं। उनके समवसरणादिक विभूति रचकर इन्द्रादिक भक्तजन महिमा करते हैं। इनके कुछ प्रयोजन नहीं है, स्वयं दिगम्बरत्व को धारण करते हुए अंतरीक्ष तिष्ठते हैं - ऐसा जानना ।।२९।। आगे मोक्ष किससे होता है सो कहते हैं - णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण । चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिह्रो ।।३०।। ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन। चतुर्णामपि समायोगे मोक्ष: जिनशासने दृष्टः ।।३०।। अर्थ – ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र से इन चारों का समायोग होने पर जो संयमगुण हो उससे जिन शासन में मोक्ष होना कहा है ।।३०।। आगे इन ज्ञान आदि के उत्तरोत्तर सारपणा कहते हैं - णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं । सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ।।३१।। ज्ञानं नरस्य सारः सारः अपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वात् चरणं चरणात् भवति निर्वाणम् ।।३१।। अर्थ - पहिले तो इस पुरुष के लिए ज्ञान सार है, क्योंकि ज्ञान से सब हेय-उपादेय जाने जाते हैं, फिर उस पुरुष के लिए सम्यक्त्व निश्चय से सार है, क्योंकि सम्यक्त्व बिना ज्ञान मिथ्या नाम पाता है, सम्यक्त्व से चारित्र होता है, क्योंकि सम्यक्त्व बिना चारित्र भी मिथ्या है, चारित्र से निर्वाण होता है। भावार्थ – चारित्र से निर्वाण होता है और चारित्र ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ होता है तथा ज्ञान १. पाठान्तरः - चोण्हं ज्ञान-दर्शन-चरण तप इन चार के संयोग से। हो संयमित जीवन तभी हो मुक्ति जिनशासन विर्षे ।।३०।। ज्ञान ही है सार नर का और समकित सार है। सम्यक्त्व से हो चरण अर चारित्र से निर्वाण है।।३१।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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