SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१ दर्शनपाहुड सम्यक्त्वपूर्वक सत्यार्थ होता है, इसप्रकार विचार करने से सम्यक्त्व के सारपना आया । इसलिए पहिले तो सम्यक्त्व सार है; पीछे ज्ञान चारित्र सार है । पहिले ज्ञान से पदार्थों को जानते हैं अतः पहिले ज्ञान सार है तो भी सम्यक्त्व बिना उसका भी सारपना नहीं है, ऐसा जानना ।। ३१ ।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं - णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण । 'चउन्हं पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण सन्देहो ।। ३२ ।। ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः । । ३२ ॥ अर्थ - ज्ञान और दर्शन के होने पर सम्यक्त्व सहित तप करके चारित्रपूर्वक इन चारों का समायोग होने से जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं है । भावार्थ - पहिले जो सिद्ध हुए हैं, वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों के संयोग से ही हुए हैं, यह जिनवचन है, इसमें सन्देह नहीं है ।। ३२ ।। आगे कहते हैं कि लोक में सम्यग्दर्शनरूप रत्न अमोलक है और वह देव-दानवों से पूज्य है कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं । सम्मर्द्दसणरयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए ।। ३३ ।। कल्याणपरंपरया लभंते जीवाः विशुद्धसम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शनरत्नं अर्घ्य सुरासुरे लोके ॥ ३३॥ अर्थ - जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को कल्याण की परम्परा सहित पाते हैं, इसलिए सम्यग्दर्शन रत्न है वह इस सुर-असुरों से भरे हुए लोक में पूज्य है। - भावार्थ – विशुद्ध अर्थात् पच्चीस मलदोषों से रहित निरतिचार सम्यक्त्व से कल्याण की परम्परा अर्थात् तीर्थंकर पद पाते हैं, इसलिए यह सम्यक्त्व रत्न लोक में सब देव, दानवों और १. 'दट्ठूण' पाठान्तर । २. 'अक्खयसोक्खं लहदि मोक्खं च ' पाठान्तर । सम्यक्पने परिणमित दर्शन ज्ञान तप अर आचरण । इन चार के संयोग से हो सिद्ध पद सन्देह ना ।। ३२ ।। समकित रतन है पूज्यतम सब ही सुरासुर लोक में । क्योंकि समकित शुद्ध से कल्याण होता जीव का ।। ३३ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy