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________________ दर्शनपाहुड वन्दे तपः श्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्यं च। सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन ।।२८।। अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो तप सहित श्रमणपना धारण करते हैं, उनको तथा उनके शील को, उनके गुण को व ब्रह्मचर्य को मैं सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उनके उन गुणों से-सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से सिद्धि अर्थात् मोक्ष के प्रति गमन होता है। भावार्थ - पहले कहा कि देहादिक वंदने योग्य नहीं हैं, गुण वंदने योग्य हैं। अब यहाँ गुण सहित की वंदना की है। वहाँ जो तप धारण करके गृहस्थपना छोड़कर मुनि हो गये हैं, उनको तथा उनके शीलगुणब्रह्मचर्य सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से संयुक्त हो उनकी वंदना की है। यहाँ शील शब्द से उत्तरगुण और गुण शब्द से मूलगुण तथा ब्रह्मचर्य शब्द से आत्मस्वरूप में मग्नता समझना चाहिए ।।२८।। आगे कोई आशंका करता है कि संयमी को वंदने योग्य कहा तो समवसरणादि विभूति सहित तीर्थंकर हैं, वे वंदने योग्य हैं या नहीं ? उसका समाधान करने के लिए गाथा कहते हैं कि जो तीर्थंकर परमदेव हैं, वे सम्यक्त्वसहित तप के माहात्म्य से तीर्थंकर पदवी पाते हैं, वे भी वंदने योग्य हैं - चउसट्ठि चमरसहिओ चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो। अणवरबहुसत्तहिओ कम्मक्खयकारणणिमित्तो ।।२९।। चतुःषष्टिचमरसहित: चतुस्त्रिंशद्भिरतिशयैः संयुक्तः । अनवरतबहुसत्त्वहित: कर्मक्षयकारणनिमित्त: ।।२९।। अर्थ - जो चौसठ चंवरों से सहित हैं, चौतीस अतिशय सहित हैं, निरन्तर बहुत प्राणियों का हित जिनसे होता है ऐसे उपदेश के दाता हैं और कर्म के क्षय का कारण हैं ऐसे तीर्थंकर परमदेव हैं, वे वंदने योग्य हैं। भावार्थ - यहाँ चौंसठ चँवर चौंतीस अतिशय सहित विशेषणों से तो तीर्थंकर का प्रभुत्व बताया है और प्राणियों का हित करना तथा कर्मक्षय का कारण विशेषण से दूसरे का उपकार २. 'निमित्ते' मुद्रित षट्प्राभृत में ऐसा पाठ है। चौसठ चमर चौंतीस अतिशय सहित जो अरहंत हैं। वे कर्मक्षय के हेतु सबके हितैषी भगवन्त हैं।।२९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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