SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिंगपाहुड आगे कहते हैं कि यदि भावशुद्धि के बिना गृहस्थपद छोड़े तो यह प्रवृत्ति होती है जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च । वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ।।९।। य: योजयति विवाहं कृषिकर्मवाणिज्यजीवघातं च । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण ।।९।। अर्थ – जो गृहस्थों के परस्पर विवाह जोड़ता है, संबंध करता है, कृषिकार्य-खेती बाहना किसान का कार्य, वाणिज्य व्यापार अर्थात् वैश्य का कार्य और जीवघात अर्थात् वैद्यकर्म के लिए जीवघात करना अथवा धीवरादि के कार्यों को करता है, वह लिंगरूप धारण करके ऐसे पापकार्य करता हुआ पापी नरक को प्राप्त होता है। ३११ भावार्थ – गृहस्थपद छोड़कर शुभभाव बिना लिंगी हुआ था, इससे भाव की वासना मिटी नहीं तब लिंगी का रूप धारण करके भी गृहस्थी के कार्य करने लगा, आप विवाह नहीं करता है तो भी गृहस्थों के संबंध कराकर विवाह कराता है तथा खेती व्यापार जीवहिंसा आप करता है और गृहस्थों को कराता है, तब पापी होकर नरक जाता है। ऐसे भेष धारने से तो गृहस्थ ही भला था, पद का पाप तो नहीं लगता, इसलिए ऐसे भेष धारण करना उचित नहीं है - यह उपदेश है ।।९।। आगे फिर कहते हैं। चोराण 'लाउराण च जुद्धं विवादं च तिव्वकम्मेहिं । जंतेण दिव्वमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ।। १० ।। चौराणां लापराणां च युद्धं विवादं च तीव्रकर्मभिः । यंत्रेण दीव्यमानः गच्छति लिंगी नरकवासं ।। १० ।। अर्थ - जो लिंगी ऐसे प्रवर्तता है वह नरकवास को प्राप्त होता है जो चोरों के और लापर अर्थात् झूठ बोलनेवालों के युद्ध और विवाद कराता है और तीव्रकर्म जिनमें बहुत पाप उत्पन्न हो ऐसे तीव्र कषायों के कार्यों से तथा यंत्र अर्थात् चौपड़, शतरंज, पासा, हिंदोला आदि से क्रीड़ा १. मुद्रित सटीक संस्कृत प्रति में 'समाएण' ऐसा पाठ है जिसकी छाया में 'मिथ्यात्वावादिनां' इसप्रकार है। रे जो करावें शादियाँ कृषि वणज कर हिंसा करें । वेलिंगधर ये पाप कर जावें नियम से नरक में ।। ९ ।। जो चोर लाबर लड़ावें अर यंत्र से क्रीडा करें । वेलिंगधर ये पाप कर जावें नियम से नरक में ।। १० ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy