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________________ ३१० अष्टपाहुड पाओपहदभावो सेवदि य अंबभु लिंगिरूवेण। सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे ।।७।। पापोपहतभावः सेवते च अब्रह्म लिंगिरूपेण। स: पापमोहितमति: हिंडते संसारकांतारे ।।७।। अर्थ – पाप से उपहत अर्थात् घात किया गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ जो लिंगी का रूप करके अब्रह्म का सेवन करता है वह पाप से मोहित बुद्धिवाला लिंगी संसाररूपी कांतार-वन में भ्रमण करता है। भावार्थ - पहिले तो लिंग धारण किया और पीछे ऐसा पाप परिणाम हुआ कि व्यभिचार सेवन करने लगा, उसकी पाप बुद्धि का क्या कहना ? उसका संसार में भ्रमण क्यों न हो ? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उसके रोग जाने की क्या आशा ? वैसे ही यह हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है।।७।। आगे फिर कहते हैं - दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण । अटुं झायदि झाणं अणंतसंसारिओ होदि ।।८।। दर्शनज्ञानचारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरूपेण । आर्तं ध्यायति ध्यानं अनंतसंसारिकः भवति ।।८।। अर्थ – यदि लिंगरूप करके दर्शन ज्ञान चारित्र को तो उपधानरूप नहीं किये (धारण नहीं किये) और आर्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनन्तसंसारी होता है। ___ भावार्थ - लिंग धारण करके दर्शन ज्ञान चारित्र का सेवन करना था वह तो नहीं किया और कुटुम्ब आदि विषयों का परिग्रह छोड़ा, उसकी फिर चिंता करके आर्तध्यान ध्याने लगा तब अनंतसंसारी क्यों न हो ? इसका यह तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शनादिरूप भाव तो पहिले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण कर लिया, उसकी अवधि क्या ? पहिले भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है ।।८।। जो पाप उपहत आत्मा अब्रह्म सेवें लिंगधर । वे पाप मोहितमती जन संसारवन में नित भ्रमें ।।७।। जिनलिंगधर भी ज्ञान-दर्शन-चरण धारण ना करें। वे आर्तध्यानी द्रव्यलिंगी नंत संसारी कहे ।।८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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