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________________ ३१२ अष्टपाहुड करता रहता है, वह नरक जाता है। यहाँ ‘लाउराणं' का पाठान्तर ऐसा भी है ‘राउलाणं' इसका अर्थ – रावल अर्थात् राजकार्य करनेवालों के युद्ध विवाद कराता है, ऐसे जानना । भावार्थ - लिंग धारण करके ऐसे कार्य करे वह तो नरक ही पाता है, इसमें संशय नहीं है ।।१०।। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके लिंगयोग्य कार्य करता हुआ दुःखी रहता है, उन कार्यों का आदर नहीं करता है, वह भी नरक में जाता है - दसणणाणचरित्ते तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि। पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ।।११।। दर्शनज्ञान चारित्रेषु तप: संयमनियमनित्यकर्मसु । पीडयते वर्तमान: प्राप्नोति लिंगी नरकवासम् ।।११।। अर्थ – जो लिंग धारण करके इन क्रियाओं को करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा पाता है, दुःखी होता है वह लिंगी नरकवास को पाता है। वे क्रियायें क्या हैं ? प्रथम तो दर्शन ज्ञान चारित्र में इनका निश्चय व्यवहाररूप धारण करना, तप-अनशनादिक बारह प्रकार, शक्ति के अनुसार करना, संयम-इन्द्रियों को और मन को वश में करना तथा जीवों की रक्षा करना, नियम अर्थात् नित्य कुछ त्याग करना और नित्यकर्म अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाओं को नियत समय पर नित्य करना, ये लिंग के योग्य क्रियायें हैं, इन क्रियाओं को करता हुआ दु:खी होता है वह नरक पाता है। (“आतम हित हेतु विराग ज्ञान सो लखै आपको कष्टदान” मुनिपद=मोक्षमार्ग, उसको तो वह कष्टदाता मानता है, अत: वह मिथ्या रुचिवान है।) भावार्थ - लिंग धारण करके ये कार्य करने थे, इनका तो निरादर करे और प्रमाद सेवे, लिंग के योग्य कार्य करता हुआ दु:खी हो तब जानो कि इसके भावशुद्धिपूर्वक लिंगग्रहण नहीं हुआ और भाव बिगड़ने पर तो उसका फल नरक ही होता है, इसप्रकार जानना ।।११।। आगे कहते हैं कि जो भोजन में भी रसों का लोलुपी होता है वह भी लिंग को लजाता है - कंदप्पाइय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं । मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।१२।। ज्ञान-दर्शन-चरण तप संयम नियम पालन करें। पर दुःखी अनुभव करें तो जावें नियम से नरक में ।।११।। कन्दर्प आदि में रहें अति गृद्धता धारण करें। हैं छली व्याभिचारी अरे ! वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं।।१२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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