SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुड ३०४ जीव रागद्वेषमोहादि विभावपरिणतिरूप परिणमता है, इस विभावपरिणति के निमित्त से नवीन कर्मबंध होता है। इसप्रकार इनके संतानपरंपरा से जीव के चतुर्गतिरूप संसार की प्रवृत्ति होती है, इस संसार में चारों गतियों में अनेक प्रकार सुख-दुःखरूप हुआ भ्रमण करता है, तब कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट हो तब सर्वज्ञ के उपदेश का निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्मबंध के स्वरूप को, अपने भीतरी विभाव के स्वरूप को जाने, इनका भेदज्ञान हो, तब परद्रव्य को संसार का निमित्त जानकर इससे विरक्त हो, अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे - दर्शन - ज्ञानरूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन करे तब इसके बाह्यसाधन हिंसादिक पंच पापों का त्यागरूप निर्ग्रथ पद, सब परिग्रह की त्यागरूप निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समितिरूप, तीन गुप्तिरूप प्रवर्ते तब सब जीवों पर दया करनेवाला साधु कहलाता है । इसमें तीन पद होते हैं - जो आप साधु होकर अन्य को साधुपद की शिक्षादीक्षा दे वह आचार्य कहलाता है, साधु होकर जिनसूत्र को पढ़े-पढ़ावे वह उपाध्याय कहलाता है, अपने स्वरूप के साधन में रहे वह साधु कहलाता है, जो साधु होकर अपने स्वरूप साधन के ध्यान के बल से चार घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को प्राप्त हो वह अरहंत कहलाता है, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली जिन इन्द्रादिक से पूज्य होता है इनकी वाणी खिरती है जिससे सब जीवों का उपकार होता है, अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, जिससे सब जीवों की रक्षा होती है, यथार्थ पदार्थों का स्वरूप बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और जो चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर सब कर्मों से रहित हो जाते हैं, वह सिद्ध कहलाते हैं । इसप्रकार ये पाँच पद हैं, ये अन्य सब जीवों से महान हैं, इसलिए पंच परमेष्ठी कहलाते हैं, इनके नाम तथा स्वरूप के दर्शन, स्मरण, ध्यान, पूजन, नमस्कार से अन्य जीवों के शुभपरिणाम होते हैं इसलिए पाप का नाश होता है, वर्तमान विघ्न का विलय होता है, आगामी पुण्य का बंध होता है इसलिए स्वर्गादिक शुभगति पाता है। इनकी आज्ञानुसार प्रवर्तने से परम्परा से संसार निवृत्ति भी होती है इसलिए ये पांच परमेष्ठी सब जीवों के उपकारी परमगुरु हैं, सब संसारी जीवों से पूज्य हैं। इनके सिवाय अन्य संसारी जीव राग-द्वेष-मोहादिक विकारों से मलिन हैं, ये पूज्य नहीं हैं, इनके महानपना, गुरुपना, पूज्यपना नहीं है, आप ही कर्मों के वश मलिन हैं तब अन्य का पाप इनसे कैसे कटे ?
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy