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________________ मोक्षपाहुड ३०३ पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हितकार ।।२।। यहाँ कोई पूछे कि ग्रन्थों में जहाँ तहाँ पंच णमोकार की महिमा बहुत लिखी है, मंगलकार्य में विघ्न को दूर करने के लिए इसे ही प्रधान कहा है और इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार है वह पंच परमेष्ठी की प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठी को परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्र की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विघ्न का निवारणपना, पंच परमेष्ठी का प्रधानपना और गुरुपना तथा नमस्कार करने योग्यपना कैसे है ? वह कहो। __इसके समाधानरूप कुछ लिखते हैं - प्रथम तो पंच णमोकार मंत्र है, इसके पैंतीस अक्षर हैं, ये मंत्र के बीजाक्षर हैं तथा इनका योग सब मंत्रों से प्रधान है, इन अक्षरों का गुरु आम्नाय से शुद्ध उच्चारण हो तथा साधन यथार्थ हो तब ये अक्षर कार्य में विघ्न दूर करने में कारण हैं इसलिए मंगलरूप हैं। 'म' अर्थात् पाप को गाले उसे मंगल कहते हैं। ‘मंग' अर्थात् सुख को लावे, दे, उसको मंगल कहते हैं, इससे दोनों कार्य होते हैं। उच्चारण से विघ्न टलते हैं, अर्थ का विचार करने पर सुख होता है, इसी से इसको मंत्रों में प्रधान कहा है, इसप्रकार तो मंत्र के आश्रय की महिमा है। इसमें पंचपरमेष्ठी को नमस्कार है, वे पंचपरमेष्ठी अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये हैं, इनका स्वरूप तो ग्रन्थों में प्रसिद्ध है तो भी कुछ लिखते हैं - यह अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञ की परंपरा से सिद्ध आगम में कहा है ऐसा षद्रव्यस्वरूप लोक है, इसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं और पुद्गलद्रव्य इनसे अनंतानंत गुणे हैं, एक-एक धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। जीव तो दर्शनज्ञानमयी चेतना स्वरूप है। अजीव पाँच हैं ये चेतनारहित जड़ हैं, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं इनके विकारपरिणति नहीं है, जीव-पुद्गलद्रव्य के परस्पर निमित्त नैमित्तिकभाव से विभावपरिणति है इनमें भी पुद्गल तो जड़ है, इसके विभावपरिणति का, दुःख-सुख का संवेदन नहीं है और जीव चेतन है इसके सुख-दु:ख का संवेदन है। __ जीव अनंतानंत हैं, इनमें कई तो संसारी हैं, कई संसार से निवृत्त होकर सिद्ध हो चुके हैं। संसारी जीवों में कई तो अभव्य हैं तथा अभव्य के समान हैं। ये दोनों जाति के संसार से निवृत्त कभी नहीं होते हैं। इनके संसार अनादिनिधन है । कई भव्य हैं, ये संसार से निवृत्त होकर सिद्ध होते हैं, इसप्रकार जीवों की व्यवस्था है। अब इनके संसार की उत्पत्ति कैसे है, वह कहते हैं - जीवों के ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का अनादिबंधपर्याय है, इस बंध के उदय के निमित्त से
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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