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________________ ३०५ मोक्षपाहुड इसप्रकार जिनमत में इन पंच परमेष्ठी का महानपना प्रसिद्ध है और न्याय के बल से भी ऐसे ही सिद्ध होता है, क्योंकि जो संसार के भ्रमण से रहित हो वे ही अन्य के संसार का भ्रमण मिटाने को कारण होते हैं। जैसे जिसके पास धनादि वस्तु हो वही अन्य को धनादिक दे और आप दरिद्री हो तब अन्य की दरिद्रता कैसे मेटे, इसप्रकार जानना। जिनको संसार के दु:ख मेटने हों और संसारभ्रमण के दुःखरूप जन्म-मरण से रहित होना हो वे अरहंतादिक पंच परमेष्ठी का नामरूप मंत्र जपो, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण, ध्यान करो, इससे शुभ परिणाम होकर पाप का नाश होता है, सब विघ्न टलते हैं, परम्परा से संसार का भ्रमण मिटता है, कर्मों का नाश होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है, ऐसा जिनमत का उपदेश है, अतः भव्यजीवों के अंगीकार करने योग्य है। यहाँ कोई कहे - अन्यमत में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिक इष्टदेव मानते हैं उनके भी विघ्न टलते देखे जाते हैं तथा उनके मत में राजादि बड़े-बड़े पुरुष देखे जाते हैं, उनके भी ये इष्ट विघ्नादिक को मेटनेवाले हैं ऐसे ही तुम्हारे भी कहते हो, ऐसा क्यों कहते हो कि यह पंचपरमेष्ठी ही प्रधान हैं, अन्य नहीं हैं ? उसको कहते हैं हे भाई ! जीवों के दु:ख तो संसारभ्रमण का है और संसारभ्रमण के कारण रागद्वेषमोहादिक परिणाम हैं तथा रागादिक वर्तमान में आकुलतामयी दुःखस्वरूप है, इसलिए ये ब्रह्मादिक इष्टदेव कहे, ये तो रागादिक तथा काम क्रोधादि युक्त हैं, अज्ञानतप के फल से कई जीव सब लोक में चमत्कारसहित राजादिक बड़ा पद पाते हैं, उनको लोग बड़ा मानकर ब्रह्मादिक भगवान कहने लग जाते हैं और कहते हैं कि यह परमेश्वर ब्रह्मा का अवतार है तो ऐसे मानने से तो कुछ मोक्षमार्गी तथा मोक्षरूप होता नहीं है, संसारी ही रहता है। ऐसे ही अन्यदेव सब पदवाले जानने, वे आप ही रागादिक से दुःखरूप हैं, जन्म-मरण सहित हैं, वे पर का संसार दु:ख कैसे मेंटेगे? उनके मत में विघ्न का टलना और राजादिक बड़े पुरुष कहे जाते हैं वहाँ तो उन जीवों के पहिले शुभ कर्म बंधे थे उनका फल है। पूर्वजन्म में किंचित् शुभ परिणाम किया था इसलिए पुण्यकर्म बंधा था, उसके उदय से कुछ विघ्न टलते हैं और राजादिक पद पाते हैं, वह तो पहिले कुछ अज्ञानतप किया है, उसका फल है यह तो पुण्यपापरूप संसार की चेष्टा है, इसमें कुछ बड़ाई नहीं है, बड़ाई तो वह है जिससे संसार का भ्रमण मिटे सो यह तो वीतराग-विज्ञान भावों से ही मिटेगा, इस वीतराग-विज्ञान भावयुक्त पंच परमेष्ठी हैं ये ही संसारभ्रमण का दु:ख मिटाने में कारण हैं। वर्तमान में कुछ पूर्व शुभकर्म के उदय से पुण्य का चमत्कार देखकर तथा पाप का दु:ख देखकर भ्रम में नहीं पड़ना, पुण्य पाप दोनों संसार हैं इनसे रहित मोक्ष है, अत: संसार से छूटकर मोक्ष हो ऐसा उपाय करना। वर्तमान का विघ्न जैसा पंचपरमेष्ठी के नाम, मंत्र, ध्यान, दर्शन, स्मरण से मिटेगा वैसा अन्य के नामादिक से तो नहीं मिटेगा, क्योंकि ये पंचपरमेष्ठी ही शांतिरूप हैं, केवल शुभ परिणामों ही के कारण हैं। अन्य इष्टदेव के रूप तो रौद्ररूप हैं, इनके दर्शन स्मरण तो रागादिक तथा भयादिक के कारण हैं, इनसे तो शुभ परिणाम होते दीखते नहीं हैं। किसी के कदाचित् कुछ धर्मानुराग के वश से शुभ परिणाम हों तो वह उनसे हुआ नहीं कहलाता, उस प्राणी के स्वाभाविक धर्मानुराग के वश से होता है। इसलिए अतिशयवान शुभ परिणाम का कारण तो
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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