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________________ ३०२ अष्टपाहुड इसप्रकार सब कर्मों का अभावरूप होता है, इसके कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहे इनकी प्रवत्ति चौथे गणस्थान से सम्यक्त्व प्रगट होने पर एकदेश होती है. यहाँ से लगाकर आगे जैसे जैसे कर्म का अभाव होता है वैसे-वैसे सम्यग्दर्शन आदि की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है और जैसे-जैसे इसकी प्रवृत्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे कर्म का अभाव होता जाता है, जब घाति कर्म का अभाव होता है तब तेरहवें गुणस्थान में अरहंत होकर जीवनमुक्त कहलाते हैं और चौदहवें गुणस्थान के अंत में रत्नत्रय की पूर्णता होती है इसलिए अघाति कर्म का भी नाश होकर अभाव होता है तब साक्षात् मोक्ष होकर सिद्ध कहलाते हैं। __ इसप्रकार मोक्ष का और मोक्ष के कारण का स्वरूप जिन आगम से जानकर और सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र मोक्ष के कारण कहे हैं इनको निश्चय व्यवहाररूप यथार्थ जानकर सेवन करना । तप भी मोक्ष का कारण है उसे भी चारित्र में अंतर्भूत कर त्रयात्मक ही कहा है। इसप्रकार इन कारणों से प्रथम तो तद्भव ही मोक्ष होता है । जबतक कारण की पूर्णता नहीं होती है उससे पहले कदाचित् आयुकर्म की पूर्णता हो जाये तो स्वर्ग में देव होता है, वहाँ भी यह वांछा रहती है कि यह *शुभोपयोग का अपराध है यहाँ से चयकर मनुष्य होऊँगा तब सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग का सेवन कर मोक्ष प्राप्त करूँगा, ऐसी भावना रहती है, तब वहाँ से चयकर मोक्ष पाता है। इस पंचमकाल में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री का निमित्त नहीं है इसलिए तद्भव मोक्ष नहीं है तो भी जो रत्नत्रय का शुद्धतापूर्वक पालन करे तो यहाँ से देव पर्याय पाकर पीछे मनुष्य होकर मोक्ष पाता है। इसलिए यह उपदेश है कि जैसे बने वैसे रत्नत्रय की प्राप्ति का उपाय करना, इसमें सम्यग्दर्शन प्रधान है इसका उपाय तो अवश्य करना चाहिए इसलिए जिनागम को समझकर सम्यक्त्व का उपाय अवश्य करना योग्य है, इसप्रकार इस ग्रंथ का संक्षेप जानो। (छप्पय) सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवकारण जानूं, ते निश्चय व्यवहाररूप नीकै लखि मानूं । सेवो निशदिन भक्तिभाव धरि निजबल सारू, जिन आज्ञा सिर धारि अन्यमत तजि अघ कारूँ।। इस मानुषभव कू पाय कै अन्य चारित मति धरो। भविजीवनिकू उपदेश यह गहिकरि शिवपद संचरो ।।१।। (दोहा ) वंदूं मंगलरूप जे अर मंगलकरतार ।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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