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________________ १८४ अष्टपाहुड नहीं पाता है, किन्तु वह पुरुष संसार ही में भ्रमण करता है। भावार्थ - आत्मिक धर्म धारण किये बिना सब प्रकार के पुण्य का आचरण करे तो भी मोक्ष नहीं होता है, संसार ही में रहता है। कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावे तो वहाँ भोगों में आसक्त होकर रहे, वहाँ से चय एकेन्द्रियादिक होकर संसार ही में भ्रमण करता है। आगे इस कारण से आत्मा ही का श्रद्धान करो, प्रयत्नपूर्वक जानो, मोक्ष प्राप्त करो ऐसा उपदेश करते हैं - एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिजह पयत्तेण ।।८७।। एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ।।८७।। अर्थ - पहिले कहा था कि आत्मा का धर्म तो मोक्ष है, उसी कारण से कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! तुम उस आत्मा को प्रयत्नपूर्वक सबप्रकार के उद्यम करके यथार्थ जानो, उस आत्मा का श्रद्धान करो, प्रतीति करो, आचरण करो, मन-वचन-काय से ऐसे करो जिससे मोक्ष पावो। भावार्थ - जिसको जानने और श्रद्धान करने से मोक्ष हो उसी को जानना और श्रद्धान करना मोक्षप्राप्ति कराता है, इसलिए आत्मा को जानने का कार्य सब प्रकार के उद्यमपूर्वक करना चाहिए इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए भव्यजीवों को यही उपदेश है ।।८७।। आगे कहते हैं कि बाह्य हिंसादिक क्रिया के बिना ही अशुद्ध भाव से तंदुलमत्स्यतुल्य जीव भी सातवें नरक को गया, तब अन्य बड़े जीवों की क्या कथा ? मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं । इय णाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिच्वं ।।८८।। मत्स्यः अपि शालिसिक्थ: अशुद्धभाव: गत: महानरकम्। इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम् ।।८८।। अर्थ – हे भव्यजीव ! तू देख शालिसिक्थ (तन्दुल नाम का मत्स्य) वह भी अशुद्धभावस्वरूप होता हुआ महानरक (सातवें नरक) में गया, इसलिए तुझे उपदेश देते हैं कि अपनी आत्मा को सप्तम नरक में गया तन्दुल मत्स्य हिंसक भाव से। यह जानकर हे आत्मन् ! नित करो आतमभावना ।।८८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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