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________________ १८३ भावपाहुड उसके पुण्यकर्म का बंध होता है, उससे स्वर्गादिक के भोगों की प्राप्ति होती है और उससे कर्म का क्षयरूप संवर-निर्जरा-मोक्ष नहीं होता है ।।८४।। आगे कहते हैं कि जो आत्मा का स्वभावरूप धर्म है, वह ही मोक्ष का कारण है - ऐसा नियम है - अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिपिढें ।।८५।। आत्मा आत्मनि रत: रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः । संसारतरणहेतुः धर्मं इति जिनैः निर्दिष्टम् ।।८५।। अर्थ – यदि आत्मा रागादिक समस्त दोष से रहित होकर आत्मा ही में रत हो जाय तो ऐसे धर्म को जिनेश्वरदेव ने संसारसमुद्र से तिरने का कारण कहा है। भावार्थ - जो पहिले कहा था कि मोह के क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है सो धर्म है, सो ऐसा धर्म ही संसार से पारकर मोक्ष का कारण भगवान् ने कहा है, यह नियम है ।।८५।। __आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए कहते हैं कि जो आत्मा के लिए इष्ट नहीं करता है और समस्त पुण्य का आचरण करता है तो भी सिद्धि को नहीं पाता है - अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि fण र व स स । इ । तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।।८६।। अथपुन: आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषानि। तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुन: भणितः ।।८६।। अर्थ – अथवा जो पुरुष आत्मा का इष्ट नहीं करता है, उसका स्वरूप नहीं जानता है, अंगीकार नहीं करता है और सब प्रकार के समस्त पण्य को करता है. तो भी सिद्धि (मोक्ष) को जो नहीं चाहे आतमा अर पुण्य ही करता रहे। वह मुक्ति को पाता नहीं संसार में रुलता रहे ।।८६।। इसलिए पूरी शक्ति से निज आतमा को जानकर । श्रद्धा करो उसमें रमो नित मक्तिपद पा जाओगे।।८७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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