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________________ भावपाहुड जानने के लिए निरंतर जिनभावना कर । भावार्थ • अशुद्धभाव के माहात्म्य से तन्दुल मत्स्य जैसा अल्पजीव भी सातवें नरक को गया तो अन्य बड़े जीव क्यों न नरक जावें, इसलिए भाव शुद्ध करने का उपदेश है। भाव शुद्ध होने पर अपने और दूसरे के स्वरूप का जानना होता है। अपने और दूसरे के स्वरूप का ज्ञान जिनदेव की आज्ञा की भावना निरन्तर भाने से होता है, इसलिए जिनदेव की आज्ञा की भावना निरन्तर करना योग्य है। - १८५ तन्दुल मत्स्य की कथा ऐसे है - काकन्दीपुरी का राजा सूरसेन था । वह मांसभक्षी हो गया । अत्यन्त लोलुपी, निरन्तर मांस भक्षण का अभिप्राय रखता था । उसके 'पितृप्रिय' नाम का रसोईदार था । वह अनेक जीवों का मांस निरन्तर भक्षण कराता था । उसको सर्प डस गया सो मरकर स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हो गया। राजा सूरसेन भी मरकर वहाँ ही उसी महामत्स्य के कान में तंदुल मत्स्य हो गया । वहाँ महामत्स्य के मुख में अनेक जीव आवें और बाहर निकल जावें, तब तंदुल मत्स्य उनको देखकर विचार करे कि यह महामत्स्य अभागा है जो मुँह में आये हुए जीवों को खाता नहीं है। यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता तो इस समुद्र के सब जीवों को खा जाता। ऐसे भावों के पाप से जीवों को खाये बिना ही सातवें नरक में गया और महामत्स्य तो खानेवाला था सो वह तो नरक में जाय ही जाय । इसलिए अशुद्धभावसहित बाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही, परन्तु बाह्य हिंसादिक पाप के किये बिना केवल अशुद्धभाव भी उसी के समान है, इसलिए भावों में अशुभ ध्यान छोड़कर शुभ ध्यान करना योग्य है । यहाँ ऐसा भी जानना जो पहिले राज पाया था सो पहिले? पुण्य किया था उसका फल था, पीछे कुभाव हुए तब नरक गया इसलिए आत्मज्ञान के बिना केवल पुण्य ही मोक्ष का साधन नहीं है ।। ८८ ।। - आगे कहते हैं कि भावरहित के बाह्य परिग्रह का त्यागादिक सब निष्प्रयोजन है - बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो । आतमा की भावना बिन गिरि-गुफा आवास सब । अर ज्ञान अध्ययन आदि सब करनी निरर्थक जानिये ।। ८९ ।। इन लोकरंजक बाह्यव्रत से अरे कुछ होगा नहीं । इसलिए पूर्ण प्रयत्न से मन इन्द्रियों को वश करो ।। ९० ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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