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________________ १६७ भावपाहुड हैं, ये अनेक हैं तो भी आत्मा ही है, इसलिए इनसे भी अभेद का अनुभव करता है - आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ।।५८॥ आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चारित्रे च। आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे।।५८।। अर्थ - भावलिंगी मुनि विचारते हैं कि मेरे ज्ञानभाव प्रकट हैं, उसमें आत्मा की ही भावना है, ज्ञान कोई भिन्न वस्तु नहीं है, ज्ञान है वह आत्मा ही है, इसप्रकार ही दर्शन में भी आत्मा ही है। ज्ञान में स्थिर रहना चारित्र है, इसमें भी आत्मा ही है। प्रत्याख्यान (अर्थात् शुद्धनिश्चयनय के विषयभूत स्वद्रव्य के आलंबन के बल से) आगामी परद्रव्य का संबंध छोड़ना है, इस भाव में भी 'संवर' ज्ञानरूप रहना और परद्रव्य के भावरूप न परिणमना है, इस भाव में भी मेरा आत्मा ही है और 'योग' का अर्थ एकाग्रचित्तरूप समाधि-ध्यान है, इस भाव में भी मेरा आत्मा ही है। भावार्थ - ज्ञानादिक कुछ भिन्न पदार्थ तो हैं नहीं, आत्मा के ही भाव हैं, संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन के भेद से भिन्न कहते हैं, वहाँ अभेददृष्टि से देखें तो ये सब भाव आत्मा ही हैं, इसलिए भावलिंगी मुनि के अभेद अनुभव में विकल्प नहीं है, अत: निर्विकल्प अनुभव से सिद्धि है, यह जानकर इसप्रकार करता है ।।५८।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं - ( अनुष्टुप् श्लोक ) एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।५९।। एक: मे शाश्वत: आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षणः । शेषाः मे बाह्या: भावा: सर्वे संयोगलक्षणाः ।।५९ ।। अरे मेरा एक शाश्वत आतमा दृगज्ञानमय। अवशेष जो हैं भाव वे संयोगलक्षण जानने ।।५९।। चतुर्गति से मुक्त हो यदि शाश्वत सुख चाहते।। तो सदा निर्मलभाव से ध्याओ श्रमण शुद्धातमा ।।६०॥
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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