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________________ १६८ अष्टपाहुड ___ अर्थ - भावलिंगी मुनि विचारता है कि ज्ञान, दर्शन लक्षणरूप और शाश्वत अर्थात् नित्य ऐसा आत्मा है वही एक मेरा है। शेष भाव हैं, वे मुझसे बाह्य हैं, वे सब ही संयोगस्वरूप हैं, परद्रव्य हैं। भावार्थ - ज्ञानदर्शनस्वरूप नित्य एक आत्मा है. वह तो मेरा रूप है. एक स्वरूप है और अन्य परद्रव्य हैं, वे मुझसे बाह्य हैं, सब संयोगस्वरूप हैं, भिन्न हैं। यह भावना भावलिंगी मुनि के है।।५९।। आगे कहते हैं कि जो मोक्ष चाहे वह इसप्रकार आत्मा की भावना करे - भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविशुद्धणिम्मलं चेव । लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ।।६०।। भावय भावशुद्ध आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव। लघुचतुर्गति च्युत्वा यदि इच्छसि शाश्वतं सौख्यम् ।।६०।। अर्थ – हे मुनिजनों ! यदि चारगतिरूप संसार से छूटकर शीघ्र शाश्वत सुखरूप मोक्ष तुम चाहो तो भाव से शुद्ध जैसे हो वैसे अतिशय विशुद्ध निर्मल आत्मा को भावो। भावार्थ - यदि संसार से निवृत्त होकर मोक्ष चाहो तो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित शुद्ध आत्मा को भावो इसप्रकार उपदेश है।।६० ।। आगे कहते हैं कि जो आत्मा को भावे वह इसके स्वभाव को जानकर भावे, वही मोक्ष पाता है - जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ।।६१।। य: जीव: भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः। स: जरामरणविनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वाणम् ।।६१।। अर्थ – जो भव्यपुरुष जीव को भाता हुआ भले भाव से संयुक्त होता हुआ जीव के स्वभाव जो जीव जीवस्वभाव को सुधभाव से संयुक्त हो। भावे सदा व जीव ही पावे अमर निर्वाण को ।।६१।। चेतना से सहित ज्ञानस्वभावमय यह आतमा । कर्मक्षय का हेतु यह है यह कहें परमातमा ।।२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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