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________________ १६६ अष्टपाहुड देहादिसंगरहित: मानकषायैः सकलपरित्यक्तः। आत्मा आत्मनि रत: स भावलिंगी भवेत् साधु ॥५६॥ अर्थ – भावलिंगी साधु ऐसा होता है - देहादिक परिग्रह से रहित होता है तथा मान कषाय से रहित होता है और आत्मा में लीन होता है, वही आत्मा भावलिंगी है। भावार्थ - आत्मा के स्वाभाविक परिणाम को 'भाव' कहते हैं, उस रूप लिंग (चिह्न), लक्षण तथा रूप हो वह भावलिंग है। आत्मा अमूर्तिक चेतनारूप है, उसका परिणाम दर्शनज्ञान है। उसमें कर्म के निमित्त से (पराश्रय करने से) बाह्य तो शरीरादिक मूर्तिक पदार्थ का संबंध है और अंतरंग मिथ्यात्व और रागद्वेष आदि कषायों का भाव है इसलिए कहते हैं - बाह्य तो देहादिक परिग्रह से रहित और अंतरंग रागादिक परिणाम में अहंकाररूप मानकषाय, परभावों में अपनापन मानना इस भाव से रहित हो और अपने दर्शनज्ञानरूप चेतनाभाव में लीन हो वह भावलिंग' है जिसको इसप्रकार के भाव हों वह भावलिंगी साधु है ।।५६।। आगे इसी अर्थ को स्पष्ट करते हैं - ममत्तिं परिवजामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे ।।५७।। ममत्वं परिवर्जामि निर्ममत्वमुपस्थितः। आलंबनं च मे आत्मा अवशेषानि व्युत्सृजामि ।।५७।। अर्थ - भावलिंगी मुनि के इसप्रकार के भाव होते हैं - मैं परद्रव्य और परभावों से ममत्व (अपना मानना) को छोड़ता हूँ और मेरा निजभाव ममत्व रहित है उसको अंगीकार कर स्थित हूँ। अब मुझे आत्मा का ही अवलंबन है, अन्य सभी को छोड़ता हूँ। भावार्थ - सब परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो ऐसा भावलिंग' है।।५७॥ आगे कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन, संयम, त्याग, संवर और योग ये भाव भावलिंगी मुनि के होते निज आत्म का अवलम्ब ले मैं और सबको छोड़ दूँ। अर छोड ममताभाव को निर्ममत्व को धारण करूँ।।५७।। निज ज्ञान में है आतमा दर्शन चरण में आतमा। और संवर योग प्रत्याख्यान में है आतमा ।।५८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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