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________________ १५८ अष्टपाहुड सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण ढुरुढुल्लिओ जीवो।।४६।। अन्यश्च वसिष्ठमुनिः प्राप्त: दुःखं निदानदोषेण । तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रमित: जीव! ॥४६।। अर्थ – अन्य और एक वशिष्ठ नामक मुनि ने निदान के दोष से दु:ख को प्राप्त हुआ इसलिए लोक में ऐसा वासस्थान नहीं है जिसमें यह जीव जन्ममरणसहित भ्रमण को प्राप्त नहीं हुआ। भावार्थ - वशिष्ठ मुनि की कथा ऐसे है - गंगा और गंधवती दोनों नदियों का जहाँ संगम हुआ है वहाँ जठरकौशिक नाम की तापसी की पल्ली थी। वहाँ एक वशिष्ट नाम का तपस्वी पंचाग्नि से तप करता था। वहाँ गुणभद्र वीरभद्र नाम के दो चारणमुनि आये। उस वशिष्ठ तपस्वी को कहा जो तू अज्ञानतप करता है इसमें जीवों की हिंसा होती है, तब तपस्वी ने प्रत्यक्ष हिंसा देख और विरक्त होकर जैनदीक्षा ले ली, मासोपवाससहित आतापनयोग स्थापित किया, उस तप के माहात्म्य से सात व्यन्तरदेवों ने आकर कहा, हमको आज्ञा दो सो ही करें, तब वशिष्ठ ने कहा, 'अभी तो मेरे कुछ प्रयोजन नहीं है, जन्मांतर में तुम्हें याद करूँगा।' फिर वशिष्ठ ने मथुरापुरी में आकर मासोपवाससहित आतापन योग स्थापित किया। उसको मथरापुरी के राजा उग्रसेन ने देखकर भक्तिवश यह विचार किया कि मैं इनको पारणा कराऊँगा। नगर में घोषणा करा दी कि मुनि को और कोई आहार न दे। पीछे पारणा के दिन नगर में आये वहाँ अग्नि का उपद्रव देख अंतराय जानकर वापिस चले गये। फिर मासोपवास किया, फिर पारणा के दिन नगर में आये तब हाथी का क्षोभ देख अंतराय जानकर वापिस चले गये। फिर मासोपवास किया, पीछे पारणा के दिन फिर नगर में आये। तब राजा जरासिंघ का पत्र आया, उसके निमित्त से राजा का चित्त व्यग्र था इसलिए मुनि को पड़गाहा नहीं, तब अंतराय मान वापिस वन में जाते हुए लोगों के वचन सुने - ‘राजा मुनि को आहार दे नहीं और अन्य देनेवालों को मना कर दिया' ऐसे लोगों के वचन सुन राजा पर क्रोध कर निदान किया कि - इस राजा का पुत्र होकर राजा का निग्रह कर मैं राज करूँ, इस तप का मेरे यह फल हो, इसप्रकार निदान से मरा। राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती के गर्भ में आया, मास पूरे होने पर जन्म लिया तब इसको क्रूरदृष्टि देखकर कांसी के संदूक में रक्खा और वृत्तान्त के लेख सहित यमुना नदी में बहा दिया। कौशाम्बीपुर में मंदोदरी नाम की कलाली ने उसको लेकर पुत्रबुद्धि से पालन किया, कंस नाम रक्खा । जब वह बड़ा हुआ तो बालकों के साथ खेलते समय सबको दुःख देने लगा, तब मंदोदरी ने उलाहनों के दु:ख से इसको निकाल दिया।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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