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________________ भावपाहुड १५९ फिर यह कंस शौर्यपुर गया वहाँ वसुदेव राजा के पयादा (सेवक) बनकर रहा । पीछे जरासिंघ प्रतिनारायण का पत्र आया कि जो पोदनापुर के राजा सिंहरथ को बांध लावे उसको आधे राज्यसहित पुत्री विवाहित कर दूं। तब वसुदेव वहाँ कंससहित जाकर युद्ध करके उस सिंहरथ को बांध लाया, जरासिंध को सौंप दिया। फिर जरासिंध ने जीवंयशा पुत्रीसहित आधा राज्य दिया, तब वसुदेव ने कहा - सिंहरथ को कंस बांधकर लाया है, इसको दो। फिर जरासिंध ने इसका कुल जानने के लिए मंदोदरी को बुलाकर कुल का निश्चय करके इसको जीवयंशा पुत्री ब्याह दी, तब कंस ने मथुरा का राज लेकर पिता उग्रसेन राजा को और पद्मावती माता को बंदीखाने में डाल दिया, पीछे कृष्ण नारायण से मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसकी कथा विस्तारपूर्वक उत्तरपुराण से जानिये । इसप्रकार वशिष्ठमुनि ने निदान से सिद्धि को नहीं पाई, इसलिए भावलिंग ही से सिद्धि है।।४६।। आगे कहते हैं कि भावरहित चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है - सोणत्थि तप्पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि। भावविरओ विसवणोजत्थ णंढुरुङल्लिओ जीव ।।४७।। स: नास्ति तं प्रदेश: चतुरशीतिलक्षयोनिवासे। भावविरत: अपि श्रमण: यत्र न भ्रमित: जीवः ।।४७।। अर्थ – इस संसार में चौरासीलाख योनि उनके निवास में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जिसमें इस जीव ने द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी भावरहित होता हुआ भ्रमण न किया हो। भावार्थ - द्रव्यलिंग धारणकर निर्ग्रन्थ मुनि बनकर शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप भाव बिना यह जीव चौरासीलाख योनियों में भ्रमण ही करता रहा, ऐसा स्थान नहीं रहा, जिसमें मरण नहीं हुआ हो। आगे चौरासी लाख योनि के भेद कहते हैं - पृथ्वी, तप, तेज, आयु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद ये तो सात-सात लाख हैं, सब बयालीस लाख हुए, वनस्पति दस लाख हैं, दो १. पाठान्तर: - जीवो। चौरासिलख योनीविर्षे है नहीं कोई थल जहाँ। रे भावबिन द्रवलिंगधर घूमा नहीं हो तू जहाँ ।।४७।। भाव से ही लिंगी हो द्रवलिंग से लिंगी नहीं। लिंगभाव ही धारण करो द्रवलिंग से क्या कार्य हो।।४८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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