SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोधपाहुड पुण्य उपजावे। उसको कहते हैं - यदि तुम इसप्रकार कहो तो तुम्हारे परिणाम तो इस जाति के हैं नहीं, केवल बाह्यक्रिया मात्र में ही पुण्य समझते हो । बाह्य में बहु आरंभ परिग्रह का मन, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि निरारंभ कार्यों में विशेषरूप से लगता नहीं है, यह अनुभवगम्य है, तुम्हारे अपने भावों का अनुभव नहीं है, केवल बाह्य सामायिकादि निरारंभ कार्य का भेष धारण कर बैठो तो कुछ विशिष्ट पुण्य नहीं है, शरीरादिक बाह्य वस्तु तो जड़ है, केवल जड़ की क्रिया का फल तो आत्मा को मिलता नहीं है । अपने भाव जितने अंश में बाह्यक्रिया में लगे; उतने अंश में शुभाशुभ फल अपने को लगता है, इसप्रकार विशिष्ट पुण्य तो भावों के अनुसार है । I आरंभी परिग्रही के भाव तो पूजा, प्रतिष्ठादिक बड़े आरंभ में ही विशेष अनुराग सहित लगते हैं। जो गृहस्थाचार के बड़े आरंभ से विरक्त होगा सो उसे त्यागकर अपना पद बढ़ावेगा, जब गृहस्थाचार के बड़े आरंभ छोड़ेगा तब उसीतरह धर्मप्रवृत्ति के बड़े आरम्भ भी पद के अनुसार घटावेगा। मुनि होगा तब आरम्भ क्यों करेगा ? अतः तब तो सर्वथा आरम्भ नहीं करेगा, इसलिए मिथ्यादृष्टि बाह्यबुद्धि जो बाह्य कार्यमात्र ही को पुण्य-पाप मोक्षमार्ग समझते हैं, उनका उपदेश सुनकर अपने को अज्ञानी नहीं होना चाहिए। पुण्य-पाप के बंध में शुभाशुभ भाव ही प्रधान हैं और पुण्य-पापरहित मोक्षमार्ग है, उसमें सम्यग्दर्शनादिकरूप आत्मपरिणाम प्रधान है। (हेय बुद्धि सहित) धर्मानुराग मोक्षमार्ग का सहकारी है और ( आंशिक वीतराग भाव सहित ) धर्मानुराग के तीव्र मंद के भेद बहुत हैं, इसलिए अपने भावों को यथार्थ पहिचानकर अपनी पदवी, सामर्थ्य पहिचान-समझकर श्रद्धान-ज्ञान और उसमें प्रवृत्ति करना अपना भला-बुरा अपने भावों के आधीन है, बाह्य परद्रव्य तो निमित्तमात्र है, उपादानकारण हो तो निमित्त भी सहकारी हो और उपादान न हो तो निमित्त कुछ भी नहीं करता है, इसप्रकार इस बोधपाहुड आशय जानना चाहिए । इसको अच्छी तरह समझकर आयतनादिक जैसे कहे वैसे और इनका व्यवहार भी बाह्य वैसा ही तथा चैत्यगृह, प्रतिमा, जिनबिंब, जिनमुद्रा आदि धातु पाषाणादिक का भी व्यवहार वैसा ही जानकर श्रद्धान और प्रवृत्ति करनी । अन्यमती अनेकप्रकार स्वरूप बिगाड़कर प्रवृत्ति करते हैं उनको बुद्धि कल्पित जानकर उपासना नहीं करनी । इस द्रव्यव्यवहार का प्ररूपण प्रव्रज्या के १. गाथा २ में बिंब की जगह 'वच' ऐसा पाठ है। १२७ जिनवरकथित शब्दत्वपरिणत समागत जो अर्थ है । बस उसे ही प्रस्तुत किया भद्रबाहु के इस शिष्य ने । । ६१ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy