SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ अष्टपाहुड इसका समाधान इसप्रकार है कि गृहस्थ, अरहंत, सिद्ध और मुनियों का उपासक हैं, ये जहाँ साक्षात् हों वहाँ तो उनकी वंदना, पूजन करता ही है। जहाँ ये साक्षात् न हों वहाँ परोक्ष संकल्प कर वंदना पूजन करता है तथा उनके रहने का क्षेत्र तथा ये मुक्त हुए उस क्षेत्र में तथा अकृत्रिम चैत्यालय में उनका संकल्प कर वन्दना व पूजन करता है। इसमें अनुरागविशेष सूचित होता है, फिर उनकी मुद्रा, प्रतिमा तदाकार बनावे और उसको मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा कर स्थापित करे तथा नित्य पूजन करे इसमें अत्यन्त अनुराग से सूचित होता है, उस अनुराग से विशिष्ट पुण्यबंध होता है और उस मंदिर में छहकाय के जीवों के हित की रक्षा का उपदेश होता है तथा निरन्तर सुननेवाले और धारण करनेवाले के अहिंसा धर्म की श्रद्धा दृढ़ होती है तथा उनकी तदाकार प्रतिमा देखनेवाले के शांत भाव होते हैं, ध्यान की मुद्रा का स्वरूप जाना जाता है और वीतरागधर्म से अनुराग विशेष होने से पुण्यबन्ध होता है, इसलिए इनको भी छहकाय के जीवों के हित करनेवाले उपचार से कहते हैं। जिनमंदिर वस्तिका प्रतिमा बनाने में तथा पूजा प्रतिष्ठा करने में आरम्भ होता है, उसमें कुछ हिंसा भी होती है। ऐसा आरम्भ तो गृहस्थ का कार्य है, इसमें गृहस्थ को अल्प पाप कहा, पुण्य बहुत कहा है, क्योंकि गृहस्थ के पद में न्यायकार्य करके, न्यायपूर्वक धन उपार्जन करना, रहने के लिए मकान बनवाना, विवाहादिक करना और यत्नपूर्वक आरंभ कर आहारादिक स्वयं बनाना तथा खाना इत्यादिक कार्यों में यद्यपि हिंसा होती है तो भी गृहस्थ को इनका महापाप नहीं कहा जाता है। गृहस्थ के तो महापाप मिथ्यात्व का सेवन करना, अन्याय, चोरी आदि से धन उपार्जन करना, त्रसजीवों को मारकर मांस आदि अभक्ष्य खाना और परस्त्री सेवन करना ये महापाप हैं। गृहस्थाचार छोड़कर मुनि हो जावे तब गृहस्थ के न्यायकार्य भी अन्याय ही हैं। मुनि के भी आहार आदि की प्रवृत्ति में कुछ हिंसा होती है, उससे मुनि को हिंसक नहीं कहा जाता है, वैसे ही गृहस्थ के न्यायपूर्वक अपने पद के योग्य आरंभ के कार्यों में अल्प पाप ही कहा जाता है, इसलिए जिनमंदिर, वस्तिका और पूजा प्रतिष्ठा के कार्यों में आरंभ का अल्प पाप है, मोक्षमार्ग में प्रवर्तनेवाले से अति अनुराग होता है और उनकी प्रभावना करते हैं, उनको आहारदानादिक देते हैं और उनका वैयावृत्त्यादि करते हैं। ये सम्यक्त्व के अंग हैं और महान पुण्य के कारण हैं, इसलिए गृहस्थ को सदा ही करना योग्य है और गृहस्थ होकर ये कार्य न करे तो ज्ञात होता है कि इसके धर्मानुराग विशेष नहीं है। प्रश्न - गृहस्थी को जिसके बिना चले नहीं इसप्रकार के कार्य तो करना ही पड़े और धर्म पद्धति में आरम्भ का कार्य करके पाप क्यों मिलावे, सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध आदि करके
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy