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________________ १२८ अष्टपाहुड स्थल में आदि से दूसरी गाथा में बिंब' चैत्यालयत्रिक और जिनभवन ये भी मुनियों के ध्यान करने योग्य हैं इसप्रकार कहा है सो गृहस्थ जब इनकी प्रवृत्ति करते हैं तब ये मुनियों के ध्यान करने योग्य होते हैं, इसलिए जो जिनमंदिर, प्रतिमा, पूजा, प्रतिष्ठा आदिक के सर्वथा निषेध करनेवाले वह सर्वथा एकान्ती की तरह मिथ्यादृष्टि हैं, इनकी संगति नही करना । (मूलाचार पृ. ४९२ अ. १० गाथा ९६ में कहा है कि “ श्रद्धाभ्रष्टों के संपर्क की अपेक्षा (गृह में) प्रवेश करना अच्छा है; क्योंकि विवाह में मिथ्यात्व नहीं होगा, परन्तु ऐसे गण तो सर्व दोषों के आकर हैं, उसमें मिथ्यात्वादि दोष उत्पन्न होते हैं, अतः इनसे अलग रहना ही अच्छा है" ऐसा उपदेश है ।) आगे आचार्य इस बोधपाहुड का वर्णन अपनी बुद्धिकल्पित नहीं है, किन्तु पूर्वाचार्यों के अनुसार कहा है इसप्रकार कहते हैं। - सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।। ६१ ।। शब्दविकारो भूत: भाषासूत्रेषु यज्जिनेन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः ।। ६१ ।। अर्थ - शब्द के विकार से उत्पन्न हुआ इसप्रकार अक्षररूप परिणमे भाषासूत्रों में जिनदेव ने कहा, वही श्रवण में अक्षररूप आया और जैसा जिनदेव ने कहा वैसा ही परम्परा से भद्रबाहु नामक पंचम श्रुतकेवली ने जाना और अपने शिष्य 'विशाखाचार्य आदि को कहा। वह उन्होंने जाना वही अर्थरूप विशाखाचार्य की परम्परा से चला आया । वही अर्थ आचार्य कहते हैं, हमने कहा है, वह हमारी बुद्धि से कल्पित करके नहीं कहा गया है, इसप्रकार अभिप्राय है ।। ६१ ।। आगे भद्रबाहु स्वामी की स्तुतिरूप वचन कहते हैं - बारसअंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं । सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ ।। ६२ ।। द्वादशांगविज्ञान: चतुर्दशपूर्वांग विपुलविस्तरण: । १. विशाखाचार्य-मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को दीक्षाकाल में दिया हुआ नाम है। अंग बारह पूर्व चउदश के विपुल विस्तार विद । श्री भद्रबाहु गमकगुरु जयवंत हो इस जगत में ।। ६२ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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