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________________ अष्टपाहुड अर्थ - जिस प्रव्रज्या में तिल के तुषमात्र के संग्रह का कारण इसप्रकार भावरूप इच्छा अर्थात् अंतरंग परिग्रह और उस तिल के तुष मात्र बाह्य परिग्रह का संग्रह नहीं है इसप्रकार की प्रव्रज्या जिसप्रकार सर्वज्ञदेव ने कही है, उसीप्रकार है, अन्यप्रकार प्रव्रज्या नहीं है, ऐसा नियम जानना चाहिए। श्वेताम्बर आदि कहते हैं कि अपवादमार्ग में वस्त्रादिक का संग्रह साधु को कहा है, वह सर्वज्ञ के सूत्र में तो नहीं कहा है। उन्होंने कल्पित सूत्र बनाये हैं, उनमें कहा है, वह कालदोष है । १२२ आगे फिर कहते हैं - उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च 'अत्थइ । सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ।। ५६ ।। उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति । शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति स व त्र I । ५ ६ I I अर्थ - उपसर्ग अथवा देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत उपद्रव और परीषह अर्थात् दैव-कर्मयोग से आये हुए बाईस परीषहों को समभावों से सहना इसप्रकार प्रव्रज्यासहित मुनि है, वे जहाँ अन्यजन नहीं रहते ऐसे निर्जन वनादि प्रदेशों में सदा रहते हैं, वहाँ भी शिलातल, काष्ठ, भूमितल में रहते हैं, इन सब ही प्रदेशों में बैठते हैं, सोते हैं, 'सर्वत्र' कहने से वन रहें और किंचित्काल नगर में रहें तो ऐसे ही स्थान पर रहें। भावार्थ - जैनदीक्षावाले मुनि उपसर्गपरीषह में समभाव रखते हैं और जहाँ सोते हैं, बैठते हैं, वहाँ निर्जन प्रदेश में शिला, काष्ठ, भूमि में ही बैठते हैं, सोते हैं, इसप्रकार नहीं है कि अन्यमत के भेषीवत् स्वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार जानना चाहिए ।। ५६ ।। आगे अन्य विशेष कहते हैं - पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ । सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५७ ।। पशुमहिलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः । पशु - नपुंसक - महिला तथा कुस्शीलजन की संगति । ना करें विकथा ना करें रत रहें अध्ययन-ध्यान में ।। ५७ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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