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________________ १२१ बोधपाहुड गया है। अन्यमती आत्मा का स्वरूप सर्वथा एकांत से अनेकप्रकार भिन्न-भिन्न कहकर वाद करते हैं, उनके आत्मा के स्वरूप में मूढभाव है। जैन मुनियों के अनेकांत से सिद्ध किया हुआ यथार्थ ज्ञान है, इसलिए मूढ़भाव नहीं है। जिसमें आठकर्म और मिथ्यात्वादि प्रणष्ट हो गये हैं, जैनदीक्षा में अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्व का अभाव है, इसीलिए सम्यक्त्वनामक गुण द्वारा विशुद्ध है, निर्मल है, सम्यक्त्वसहित दीक्षा में दोष नहीं रहता है, इसप्रकार प्रव्रज्या कही है।।५३।। आगे फिर कहते हैं - जिणमग्गे पव्वजा छहसंहणणेसु भणिय णिग्गंथा। भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया ।।५४।। जिनमार्गे प्रव्रज्या षट्संहननेषु भणिता निग्रंथा। भावयंति भव्यपुरुषा: कर्मक्षयकारणे भणिता ।।५४।। अर्थ – प्रव्रज्या जिनमार्ग में छह संहननवाले जीव के होना कहा है, निर्ग्रन्थ स्वरूप है, सब परिग्रह से रहित यथाजातस्वरूप है। इसकी भव्यपुरुष ही भावना करते हैं। इसप्रकार की प्रव्रज्या कर्म के क्षय का कारण कही है। भावार्थ - वज्रवृषभनाराच आदि, छह शरीर के संहनन कहे हैं, उनमें सबमें ही दीक्षा होना कहा है, जो भव्यपुरुष हैं वे कर्मक्षय का कारण जानकर इसको अंगीकार करो। इसप्रकार नहीं है कि दृढ़ संहनन वज्रऋषभ आदि हैं उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपाटिक संहनन में न हो, इसप्रकार निर्ग्रन्थरूप दीक्षा तो असंप्राप्तसृपाटिका संहनन में भी होती है ।।५४।। आगे फिर कहते हैं - तिलतुसमत्तणिमित्तसम बाहिरग्गंधसंगहो णत्थि । पव्वज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरसीहिं ।।५५।। तिलतषमात्रनिमित्तसमः बाह्यग्रंथसंग्रहः नास्ति। प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः ।।५।। १. पाठान्तर - अच्छेइ। जिसमें परिग्रह नहीं अन्तर्बाह्य तिलतुषमात्र भी। सर्वज्ञ के जिनमार्ग में जिनप्रव्रज्या ऐसी कही ।।५५।। परिषह सहें उपसर्ग जीतें रहें निर्जन देश में। शिला पर या भूमितल पर रहें वे सर्वत्र ही ।।५६।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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