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________________ बोधपाहुड १२३ स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।५७।। अर्थ – जिस प्रव्रज्या में पशु-तिर्यंच, महिला (स्त्री), षंढ (नपुंसक) इनका संग तथा कुशील (व्यभिचारी) पुरुष का संग नहीं करते हैं; स्त्री कथा, राज कथा, भोजन कथा और चोर इत्यादि की कथा जो विकथा है, उनको नहीं करते हैं तो क्या करते हैं ? स्वाध्याय अर्थात् शास्त्र जिनवचनों का पठन-पाठन और ध्यान अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान इनसे युक्त रहते हैं। इसप्रकार प्रव्रज्या जिनदेव ने कही है। भावार्थ - जिनदीक्षा लेकर कुसंगति करे, विकथादिक करे और प्रमादी रहे तो दीक्षा का अभाव हो जाय, इसलिए कुसंगति निषिद्ध है। अन्य भेष की तरह यह भेष नहीं है। यह मोक्षमार्ग है, अन्य संसारमार्ग है ।।५७।। आगे फिर विशेष कहते हैं - तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वजा एरिसा भणिया ।।५८।। तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च । शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिताः ।।५८।। अर्थ – जिनदेव ने प्रव्रज्या इसप्रकार कही है कि तप अर्थात् बाह्य-आभ्यन्तर बारह प्रकार के तप तथा व्रत अर्थात् महाव्रत और गुण अर्थात् इनके भेदरूप उत्तरगुणों से शुद्ध हैं। 'संयम' अर्थात् इन्द्रिय मन का निरोध, छहकाय के जीवों की रक्षा, ‘सम्यक्त्व' अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण निश्चय-व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन तथा इनके 'गुण' अर्थात् मूलगुणों से शुद्ध, अतिचार रहित निर्मल है और जो प्रव्रज्या के गुण कहे उनसे शुद्ध हैं, भेषमात्र ही नहीं है; इसप्रकार शुद्ध प्रव्रज्या कही जाती है इन गुणों के बिना प्रव्रज्या शुद्ध नहीं है। १. पाठान्तरः - आयत्तणगुणपव्वज्जता । २. संस्कृत सटीक प्रति में आयतन' इसको सं. 'आत्मत्व' इसप्रकार है। सम्यक्त्व संयम तथा व्रत-तप गुणों से सुविशुद्ध हो। शुद्ध हो सद्गुणों से जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।।५८।। आयतन से प्रव्रज्या तक यह कथन संक्षेप में। सुविशुद्ध समकित सहित दीक्षा यों कही जिनमार्ग में ।।५९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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