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________________ ऐसे क्या पाप किए! इस बात की पुष्टि आचार्य अमृतचन्द के समयसार-कलश से भी होती है वे कहते हैं - "तत्त्वदृष्टि से देखने पर राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाला अन्यद्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्वद्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अन्तरंग में प्रकाशित होती है।'' कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में भी यही बात कही है। “अन्य द्रव्य से अन्यद्रव्य के गुणों की उत्पत्ति नहीं की जा सकती; इससे सर्वद्रव्य अपनेअपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।"२ इस गाथा की टीका में और भी अधिक स्पष्टरूप से कहा है - "ऐसी शंका नहीं करना चाहिए कि - परद्रव्य जीव को रागादि उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है; क्योंकि सर्वद्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। इसलिए हम जीव के रागादि का उत्पाद परद्रव्य को नहीं देखते हैं।" परन्तु निमित्त-नैमित्तिक एक सहज संयोग है। सूर्योदय में चकवाचकवी का संयोग किसी ने करुणा करके मिलाया नहीं है, रात होती हैं, सब सो जाते हैं। सवेरा होता है, सब जाग जाते हैं। सवेरा किसी को पुकार-पुकार कर जगाता नहीं, रात किसी को सुलाती नहीं है; परन्तु जब कोई पूछता है क्यों सो गये? उत्तर मिलता है रात हो गई। क्यों जाग गये? उत्तर होता है - सवेरा हो गया। ऐसा ही सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। इसीतरह कर्मोदय में जीव स्वयं विभावरूप परिणमता है। टोडरमलजी ने लिखा है कि “यदि कर्म परिणमावे तो कर्म को चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए।" निमित्तों को कर्ता मानने से हानि ही हानि है। स्वयंकृत चोरी का दोष चन्द्रमा पर मढ़कर “यदि चाँदनी न होती तो मैं ताला तोड़ता ही १. राग द्वेषोत्पादके तत्त्व दृष्ट्या, नान्यद्व्यं वीक्ष्यते किचनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति, व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ।।२१९ ।। २. अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ। तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जन्ते सहावेण ।।३७२ ।। जिनागम के आलोक में विश्व की कारण-कार्य व्यवस्था कैसे?" कोई चोर दण्डमुक्त नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा भी अपने द्वारा कृत मोह-राग-द्वेष भावों का कर्तृत्व कर्मों पर थोपकर दुःखमुक्त नहीं हो सकता, किन्तु निमित्ताधीन दृष्टिवालों की वृत्ति स्व-दोष दर्शन की ओर नहीं जाती। वे आत्म निरीक्षण नहीं करते। निमित्तों के कर्तृत्व के निषेध पक्ष में निम्नलिखित आगम के उदाहरण भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं : (१) नरकों में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में वेदना, जातिस्मरणादि को निमित्त कहा है, सो वेदना तो सभी को हर समय है, सदा सबको सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता? (२) क्षायिक सम्यक्त्व केवली के पादमूल में होता है तो समवसरण में स्थित सभी जीवों को क्षायिक सम्यक्त्व हो जाना चाहिए, परन्तु होता नहीं - इसका क्या कारण है? (३) मक्खन गोशाल ६६ दिन तक भगवान महावीर के समवसरण में बैठा-बैठा क्यों चला गया? और गृहीत मिथ्यादृष्टि होकर मस्करी मत का प्रचारक कैसे बन गया? (४) शील के प्रभाव से सीताजी की अग्निपरीक्षा में अग्नि का जल हो गया और १८ हजार प्रकार से शील का पालन करने वाले भावलिंगी सन्त पाँचों पाण्डवों के अग्निमय लोह आभूषण ठंडे क्यों नहीं हुए? (५) आदिनाथ भगवान जैसा समर्थ निमित्त पाकर भी मारीचि मिथ्यादृष्टि कैसे बना रहा? वह क्यों नहीं सुलटा और आदिनाथ उसे क्यों नहीं समझा पाये? आदि ..... यदि उपर्युक्त सभी बातों पर शान्ति से विचार किया गया, कारणकार्य व्यवस्था को निमित्त-उपादान के संदर्भ में समझने का प्रयास किया गया तो दृष्टि में निर्मलता आ सकती है। मोक्षमार्ग में निमित्तों का क्या स्थान है इसका निर्णय कर सभी जीव स्वाधीन वृत्ति से साम्यभाव को प्राप्त करें। इस पवित्र भावना के साथ विराम... । (44)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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