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________________ ऐसे क्या पाप किए ! जीवन-मरण रूप उपकार बताये हैं। यहाँ उपकार का अर्थ निमित्त मानने में सबसे प्रबल हेतु यह है कि दुःख और मरण भलाई कैसे माने जा सक हैं। तथा धर्म, अधर्मादि द्रव्यों में तो ज्ञान ही नहीं है, वे भलाई कैसे करेंगे। और निमित्तपना या हेतुता तो सब में समानरूप से है ही । सर्वार्थसिद्धि में भी निमित्त का अर्थ हेतुता ही किया गया है। 'कृतज्ञता' का अर्थ भी सीधा है। कृत+ज्ञ+ता=अर्थात् किये हुए कार्य का जानपना। कार्योत्पत्ति में कितना किसका सहकार व सहचरपना है - इसका यथार्थ ज्ञान कर लेना ही कृतज्ञता है। तभी निमित्त व उपादान को यथायोग्य आदर दिया जा सकेगा। अन्यथा जो कुछ भी नहीं करते, ऐसे निमित्तों को आवश्यकता से अधिक महत्व मिल जायेगा और जिसने अपना सर्वस्व समर्पण किया ऐसा उपादान उपेक्षित रह जायगा । जैसा अभी अज्ञानियों द्वारा हो रहा है। ८४ कक्षा में प्रथम स्थान पाने पर यद्यपि छात्र को ही प्रमाण-पत्र व प्रगति के अवसर मिलते हैं; परन्तु योग्य छात्र गुरुजी को सफलता का श्रेय दिये बिना नहीं रहता । करणानुयोग पढ़कर कुछ व्यक्ति कर्मों को कर्त्ता मानने लगते हैं, जबकि वहाँ केवल निमित्त नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कराया गया है। कर्मों की आड़ में जो व्यक्ति अपना दोष कर्मों के माथे मढ़ना चाहते हैं, उन्हें सावधान करते हुए पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार के सर्व विशुद्धि अधिकार छन्द ६२, ६३ में कहा है - "कोऊ मूरख यौं कहैं, राग दोष परिणाम । पुद्गल की जोरावरी, वरतै आतमराम ।। ज्यों-ज्यों पुद्गल बल करै, धरि-धरि कर्मज भेष । राग दोष की परिणमन, त्यों-त्यों होइ विशेष ।। " अर्थात् कोई मूर्ख ऐसा कहते हैं कि राग-द्वेष के परिणमन पुद्गल कर्म की बलजोरी से होते हैं; किन्तु ऐसी बात नहीं है। इस प्रश्न के समाधान में (43) जिनागम के आलोक में विश्व की कारण कार्य व्यवस्था इसी के आगे कविवर बनारसीदासजी ही लिखते हैं " इहि विधि जो विपरीत पख, गहै सद्दहै कोइ । सो जन राग-विरोध सौं, कबहूँ भिन्न न होइ ।। " अर्थात् इसप्रकार विपरीत अर्थ ग्रहण करने वालों को कभी मोक्ष नहीं होगा तथा उनके कभी राग-द्वेष के नाश का प्रसंग नहीं आयेगा । पण्डित टोडरमलजी कहते हैं- “आप तो महंत रहना चाहता है और अपना दोष कर्मों पर मढ़ता है सो ऐसी अनीति जिनधर्म में तो संभव नहीं है।" अरे! जो परद्रव्य की सत्ता से ही इन्कार करते हैं, उन अद्वैतवादियों को सही मार्गदर्शन देने के लिए परद्रव्य (निमित्त) की अनिवार्यता पर जोर दिया है। उस कथन से अज्ञानी निमित्तों के कर्तृत्व का भ्रम पाल लेता है। जिनवाणी के सूत्रों का सार और प्रयोजन एकमात्र वीतरागता है । तथा 'निमित्तों से कार्य होता है' - ऐसा मानने से निमित्तों पर राग-द्वेष ही होता है अतः सूत्रों के प्रयोजन के विरुद्ध मान्यता होने से भी निमित्तों को कर्त्ता नहीं माना जा सकता। वस्तु की स्वतंत्रता जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है और स्वावलम्बन ही उस स्वतंत्रता की प्राप्ति का उपाय है तथा निमित्तों के अवलम्बन में परावलम्बन है, अतः निमित्ताधीन दृष्टि स्वतंत्रता प्राप्ति का उपाय नहीं हो सकती । प्रत्येक द्रव्य का अपना स्वायत्त शासन है, उसमें परद्रव्य का अनुशासन नहीं चलता । प्रत्येक द्रव्य की अपनी स्वतंत्र सीमायें और मर्यादायें हैं। उनका अपना-अपना स्वचतुष्टय है, फिर एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कार्य करे ही क्यों और कर भी कैसे सकता है? प्रत्येक द्रव्य पर से असहाय या स्व-सहाय, स्वतंत्र है। नाटक समयसार में आता है - " सकल वस्तु जग में असहाई, वस्तु सों मिले न कोई । जीव वस्तु जाने जग जैसी, सोऊ भिन्न रहे सब सेती ।। "
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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