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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग दिखाई देता है, (३) शक्तिके अविभाग प्रतिच्छेद ( अंश) घटते भी हैं, और बढ़ते भी हैं-यह वस्तु स्वभाव है इसलिये यह नित्य-नियत एकरूप दिखाई नहीं देता, (४) वह दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणोंसे विशेषरूप देखाई देता है और (५) कर्मके निमित्तसे होनेवाले मोह, राग, द्वेष आदि परिणामों कर सहित वह सुखदुःखरूप दिखाई देता है। यह सब अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनयका विषय है। इस दृष्टि ( अपेक्षा) से देखा जाये तो यह सब सत्यार्थ है। परंतु आत्माका एक स्वभाव इस नयसे ग्रहण नहीं होता, और एक स्वभावको जाने बिना यथार्थ आत्माको कैसे जाना सकता है ? इस लिये दूसरे नयको -उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिकनयको-ग्रहण करके, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकर, उसे शुद्धनयकी दृष्टिसे सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, सर्व पर्यायोंमें एकाकार, हानिवृद्धिसे रहित, विशेषोंसे रहित और नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाये तो सर्व (पाँच) भावोंसे जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ है-असत्यार्थ है। यहाँ यह समझना चाहिये कि वस्तुका स्वरूप अनंत धर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे यथार्थ सिद्ध होता है। आत्मा भी अनंतधर्मवाला है। उसके कुछ धर्म तो स्वाभाविक है और कुछ पुद्गलके संयोगसे होते हैं। जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे आत्माकी सांसारिक प्रवृत्ति होती है और तत् संबंधी जो सुखदुःखादि होते हैं उन्हें भोगता है। यह, इस आत्माकी अनादिकालीन अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है; उसे अनादि-अनंत एक आत्माका ज्ञान नहीं है। इसे बतानेवाला सर्वज्ञका आगम है। उसमें शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे यह बताया है कि आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है जो कि अखंड, नित्य और अनादिनिधन है। उसे जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है। परद्रव्योंसे, उनके भावोंसे और उनके निमित्तसे होनेवाले अपने विभावोंसे अपने आत्माको भिन्न जानकर जीव उसका अनुभव करता है तब परद्रव्यके भावोंस्वरूप परिणमित नहीं होता; इसलिये कर्म बंध नहीं होता और संसारसे निवृत्ति हो जाती है। इसलिये पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ ( असत्यार्थ) कहा है और शुद्धनिश्चयनयको सत्यार्थ कहकर उसका आलंबन दिया है। वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति होने के बाद उसका भी आलंबन नहीं रहता। इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि शुद्धनयको सत्यार्थ कहा है इसलिये अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है। ऐसा माननेसे वेदांतमतवाले जो कि संसारको सर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकांत पक्ष आजायेगा और उससे मिथ्यात्व आजायेगा, इसप्रकार यह शुद्धनयका आलंबन भी वेदान्तियोंकी भाँति मिथ्यादृष्टिपना लायेगा। इसलिये सर्वनयों की कथंचित् सत्यार्थका आलंबन भी श्रद्धान करनेसे सम्यकदृष्टि हुआ जा सकता है। इस प्रकार स्याद्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना चाहिये, मुख्य-गौण कथनको सुनकर सर्वथा एकांत पक्ष नहीं पकड़ना चाहिये। इस गाथासूत्रका विवेचन करते हुए टीकाकार आचार्य ने भी कहा है कि आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टिमें जो बद्धस्पृष्ट आदि Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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