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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५०८ दंसणणाणचरत्तिं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए। तम्हा कि घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु।। ३६६ ।। दसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि।। ३६७ ।। दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु।। ३६८ ।। णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स। ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो।। ३६९ ।। जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु। तम्हा सम्मादिविस्स णत्थि रागो दु विसएस।।३७० ।। रागो दासो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा। एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी।। ३७१ ।। चारित्र-दर्शन-ज्ञान किंचित् नहिं अचेतन विषयमें । इस हेतु से यह आत्मा क्या हन सके उन विषयमें ?।। ३६६।। चारित्र-दर्शन-ज्ञान किंचित् नहिं अचेतन कर्ममें । इस हेतु से यह आत्मा क्या हन सके उन कर्ममें ?।। ३६७।। चारित्र-दर्शन-ज्ञान किंचित् नहिं अचेतन कायमें । इस हेतु से यह आत्मा क्या हन सके उन कायमें ? ।। ३६८।। है ज्ञानका, सम्यक्तका, उपघात चरितका कहा। वहाँ और कुछ भी नहिं कहा उपघात पुद्गलद्रव्यका ।। ३६९।। जो जीवके गुण है नियत वो कोई नहिं परद्रव्यमें । इस हेतुसे सद्दृष्टि जीवको राग नहिं है विषय में ।। ३७०।। अरु राग, द्वेष, विमोह तो जीवके अनन्य परिणाम हैं। इस हेतु से शब्दादि विषयों में नहीं रागादि हैं ।।३७१।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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