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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ( मन्दाक्रान्ता ) रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावत् ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम् । ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ।। २१७ ।। ५०७ [ ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति ] चांदनीका रूप पृथ्वीको उज्ज्वल करता है [ भूमि: तस्य न एव अस्ति ] तथापि पृथ्वी चांदनीकी कदापि नहीं होती; [ ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति ] इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयको सदा जानता है [ ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका कदापि नहीं होता । भावार्थ:-शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो किसी द्रव्यका स्वभाव किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता। जैसे चांदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है किन्तु पृथ्वी चांदनीकी किंचित्मात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है किन्तु ज्ञेय ज्ञानका किंचित्मात्र भी नहीं होता । आत्माका ज्ञानस्वभाव है इसलिये उसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकता है, किन्तु ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता । २१६ । अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ :- [ तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते ] राग-द्वेषका द्वंद्व तबतक उदयको प्राप्त होता है [ यावत् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति ] कि जबतक वह ज्ञान ज्ञानरूप न हो [ पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्व को प्राप्त न हो। [ तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत - अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु ] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप हो— [ येन भाव -अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति] कि जिससे भाव-अभाव (राग-द्वेष ) को रोकता हुआ पूर्णस्वभाव (प्रगट ) हो जाये। भावार्थ:-ज्‍ [:- जबतक ज्ञान ज्ञानरूप न हो, ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो, तबतक रागद्वेष उत्पन्न होता है; इसलिये इस ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप होओ, कि जिससे ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको प्राप्त हो जाये। यह प्रार्थना है । २१७। ' ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं, आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रादि कोई गुण परद्रव्योंमें नहीं हैं' ऐसा जानने के कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति राग नहीं होता; और रागद्वेषादि जड़ विषयोंमें भी नहीं होते; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं। - इस अर्थकी गाथाएं कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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