SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार , चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः। ( नर्दटक ) ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्। न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।। २९९ ।। (पृथ्वी) बहिर्लुठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्। स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।। २१२ ।। ४९१ चेष्टारूप कर्मके आत्मपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, और एकद्रव्यत्वके कारण उसने अनन्य होनेसे तन्मय है; इसलिये परिणाम - परिणामीभावसे वहीं कर्ता - कर्मपनका और भोक्ता - भोग्यपनका निश्चय है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ ननु परिणामः एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही निश्चयसे कर्म हैं, और [ सः परिणामिनः एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं ( क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता ); [ इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [ च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप ( कूटस्थ ) स्थिति नहीं होती ( क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधासहित है); [ ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मका कर्ता है ( - यह निश्चय - सिद्धांत है ) । २११ । अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते है: श्लोकार्थ:- [स्वयं स्फुटत्-अनन्त-शक्तिः] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है ऐसी वस्तु [ बहि: यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बहार यद्यपि लोटती है [ तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति ] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तुके भीतर प्रवेश नहीं करती, [ यतः सकलम् एव वस्तु स्वभाव - नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित हैं ऐसा माना जाता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy